दोहा पर दंगल

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''दोहा' पर दंगल 

अभी-अभी फेसबुक पर दोहा के विधान के ऊपर दंगल देखने को मिला। मुझे लगा रसाचार्य भरतमुनि, आचार्य मम्मट, आचार्य भामह, आचार्य विश्वनाथ के साथ स्वयं पिंगलाचार्य पधारे हैं। किंतु जब सबके विचारों एवं भाषा शैली का अवलोकन किया तो मुझे गाँव की एक पुरानी कहावत याद आ गई -

बाभन, कुत्ता, हाथी।
ई तीनों जाते के घाती।।

(बाभन का तात्पर्य यहाँ जाति विशेष से न होकर विद्वान लोगों से है )

मुझ जैसे मूढ़मति को बड़ी निराशा हुई। अपने-अपने क्षेत्र में लब्ध-प्रतिष्ठ लोग और बातें दकियानूसी! स्तरहीन!

आइए, मुद्दे पर बात करते हैं।

मुद्दा - एक आचार्य ने दोहे में समांत के साथ-साथ पदांत का प्रयोग किया और लोगों से सम्मति माँगी।

फिर क्या हुआ?- हुआ यह कि विद्वानों की चार श्रेणियाँ बन गईं।
1. पक्षकार - जो आचार्य के साथ उनके प्रयोग के साथ खड़े थे।

 2. विपक्षकार - जो आचार्य के इस प्रयोग को उचित नहीं ठहरा रहे थे।

3. उभयचर - कुछ विद्वान ऐसे भी थे जिनकी उपस्थिति दोनों जगह थी और उनकी बातें भी।

4. अनभिज्ञ टिप्पणीकार - कुछ ऐसे भी विद्वान देखें गए जिन्हें वास्तविकता का पता नहीं किंतु वे जिस पोस्ट पर गए वहाँ कुछ टिप्पणी रखकर अपनी उपस्थिति इंगित कर दिए। मुझे ऐसे लोगों के प्रति सहानुभूति है।

विश्लेषण - 

सार्थक तथ्यात्मक विमर्श के बजाय कीचड़ उछालने और एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास मुझ जैसे शिक्षार्थी को ज्यादा लगा।विपक्षकारों में कुछ लोग ऐसे भी थे जिनकी भाषिक मर्यादा अद्वितीय थी! अपशब्दों की झड़ी लगा दी उन्होंने। पक्षकारों को चाटुकार की संज्ञा दी गई। समांत-तुकांत या विधान-विचलन पर चर्चा के बदले उनका पूरा ध्यान "सनातनी छंद" के पहाड़े पर केंद्रित रहा। आज के पहले किसी ने ऐसा नहीं किया, यह गलत है, विधान भंग है। लेकिन कैसे? यदि यह बताया जाता तो मुझ जैसे अल्पज्ञ का ज्ञानवर्धन होता! साथ ही, यदि यह प्रयोग पहले कभी हुआ है तो प्रयोगकर्ता आचार्य को इस पर प्रकाश डालना चाहिए था।

समस्या का कारण -

ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता किंतु परिचर्चा से अनुमान लग रहा है कि इस दंगल के पीछे निम्न कारण हो सकते हैं -

1. स्वयं को सर्वश्रेष्ठ /सर्वज्ञ/ विशेषज्ञ मानने की प्रवृति।
2. स्वयं को सत्ताधीश बनाने का प्रयास।
3.कोई पूर्ववर्ती विवाद।
4. गाली का गुलेल चलाकर स्वयं को विशेषज्ञ सिद्ध करने का प्रयास।
5. एक-दूसरे की लोकप्रियता / उपलब्धियों /गुणवत्ता / रचनाधर्मिता को दंभवश स्वीकार करने में हिचकिचाहट।
6. सकारात्मक सह-अस्तित्व की भावना में कमी।
इत्यादि।


कुछ प्रश्न -

इस संपूर्ण वार्तालाप से मुझ मूढ़मति के मन में कुछ प्रश्न उपजें, कृपया ज्ञानरंजन करें -🙏

1. नवाचार का विरोध क्यों?
2. क्या पूर्ववर्ती कवियों / आचार्यो ने नवाचार नहीं किया है?
3. यदि पहले कुछ नहीं हुआ तो क्या अब नहीं हो सकता / या नहीं होना चाहिए?
4. विभिन्न प्रकार के छंद कैसे बने?
5. विभिन्न छंदों में उपजातियाँ कैसे बनीं?
6.महाकवि निराला ने मुक्तछंद का प्रवर्तन क्यों किया?
7. क्या किसी पूर्ववर्ती कवि ने फेसबुक पर लिखा था? यदि नहीं तो आज क्यों लिखी जा रही?
8. क्या ये दोहे नहीं माने जाएँगे?

 बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। 
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥/ कबीर 
***
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। 
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥ / कबीर 
***
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । 
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाय।।/कबीर 
***
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।/कबीर 
***
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।/ कबीर 
***
मुख ब्राह्मण कर क्षत्रिय, पेट वैश्य पग शुद्र। 
इ अंग सबही जनन में, को ब्राह्मण को शुद्र॥/
गबरीबाई 

9. दोहे के 23 प्रकार में उदर दोहे और सर्प दोहे को आखिर दोहा क्यों माना गया है?
यथा -
सर्प दोहा 
समझ समझ कर यह समझ, हरकत न गलत गलत।
तन मन धन कर कर सफल, रख नरम नरम नियत।।/ -©श्री अरविन्द व्यास “प्यास”

उदर दोहा 
डग मग महिं डगमग करत, मन बिसरत निज करम।
तन तरसत, झुरसत हृदय, यही बिरह कर मरम।।/- ©श्री नवीन सी चतुर्वेदी 

10.इस प्रकार के विवाद (?) में रेफरी या ओमबड्समैन या न्यायाधीश कौन होगा?

11. किसी छंद को पंजीकृत करने का अधिकार और उसको सर्वग्राहय करवाने का अधिकार किसके पास है?

सम्मति -

दोहे में समांत एवं पदांत के प्रयोग से किसी नियम का उल्लंघन नहीं होता है। हाँ, एक विद्वान की इस बात से मैं सहमत हूँ कि "दोहा कम शब्दों में रचा जाता है, अतः शब्दों की पुनरुक्ति से इसकी मारक-क्षमता प्रभावित होगी।" अतएव, भाव-दोहन की दृष्टि से स्वतंत्र दोहों में इस तरह का प्रयोग न हो तो उत्तम। किंतु यह प्रयोग किसी विधान को भंग नहीं करता है।

निवेदन -
सुधीजनों से निवेदन है ,कृपया 'मैं' का मयपान छोड़कर प्रज्ञामय बनिए,विवेकी बनिए। आयतित विधाओं (यथा - हाइकु, चोका, तांका आदि ) को छंद सिद्ध करने का (कुत्सित) प्रयास किया जा रहा है,। सनातनी छंदों को संरक्षित एवं साहित्य संवर्धन के लिए आपके ध्यान की आवश्यकता वहाँ है। व्याकरण-सम्मत प्रयोग एवं मानक वर्तनी को प्रोत्साहित करें। लग्गी लेकर खेत नापने वाले अमीन की बजाय एक सजग एवं सफल किसान बनें जो लहलहाती फसल उगाता है। छंदों के नाम पर परोसी जा रही भावहीन विकृत शब्दावलियों को परिष्कृत करने में अपनी ऊर्जा का सार्थक एवं सकारात्मक प्रयोग करें। साहित्य समेकित सदप्रयास से ही संवर्धित हो पाएगा।

जयहिंदी💐जयहिंद🇮🇳 

सादर 🙏
--©नवल किशोर सिंह 
 पूर्व वायुसैनिक 
 06/11/2024












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