हिमालय की गोद से : समीक्षा -नवल किशोर सिंह
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"हिमालय की गोद से" : पाठकीय अवलोकन
संवेदनशील हृदय की रसात्मक अभिव्यक्ति का नाम कविता है। इस अभिव्यक्ति की शक्ति का प्रादुर्भाव माता सरस्वती का वरदान है। इसीलिए कवित्व की इस शक्ति का कभी क्षय नहीं होता। धरती माता की गोद में संचित बीज बरसों के बाद भी जैसे अनुकूल परिवेश पाकर प्रस्फुरित हो जाता है, वैसे ही माँ वाणीदत्त कवित्व की शक्ति भी अनुकूल अवसर पाकर प्रस्फुटित हो जाती है। इस कसौटी पर बिलकुल खरे उतरते हैं - कविवर श्री उद्धव देवली जी। उच्च प्रशासनिक पेंचीदिगियों के बीच सेवारत रहने के बाद भी उनका कवित्व उनके मानस में संचित रहा, और सेवा निवृत्ति के पश्चात अनुकूल अवसर पाकर खिल उठा, जैसे पर्वत शिखर पर नयनाभिराम सुवासित पुष्प खिलते हैं। उसी प्रस्फुरण से विकसित पद-पुष्पों को एकत्रित कर एक मालिका गुंफित की गई है, जिसका नाम है- "हिमालय की गोद से "। यह कविवर श्री उद्धव देवली जी की 120 गीतिकाओं का संग्रह हैं।
इस पुस्तक प्रति की प्राप्ति से मैं हर्षाभिभूत हूँ। आपके इस स्नेहावदान हेतु विनम्र आभार निवेदित है कविवर।
आइए, "हिमालय की गोद से" निःसृत शब्द-मंजरियों का अवलोकन करते हैं।
एक संवेदनशील साहित्यकार, जिसकी प्रौढ़ तूलिका छंद सौष्टव को आत्मसात कर विविधवर्णी गीतिकाओं को सुपुष्यपित कर रही है। इन गीतिकाओं के मूल में है नित नव सीख-ग्रहण की उत्कट लालसा वाले साहित्यकार की देश, काल समाज के यथार्थ को परखने की संवेदनयुक्त क्षमता, समाजोपयोगी चिंतनशीलता, वैचारिक उत्कृष्टता। इतना सब कुछ होने के बाद भी कवि की विनयशीलता प्रशंसनीय है। ज्ञान, गुण की अधिष्ठात्री देवी के प्रति कवि की विनम्र याचना देखिए -
आज मैं भी गा रहा हूँ, शारदा का गान।
दें मुझे आशीष माता, रह सकूँ गतिमान।
लेखनी में क्षीर भर दे, शब्द हों दमदार।
शिल्प की गंगा बहा दे, हो नया संधान।
कदाचित इसी विनम्रशीलता के चलते माँ वागीश्वरी ने कवि की याचना स्वीकार कर उन्हें गीतिका-गंगा प्रवाहित करने के लिए उत्प्रेरित की है।
प्रकृति की गोद में जन्मे, पले, बढ़े कवि की लेखनी से प्रकृति प्रेम की अजस्त्र-स्रोत निर्झरिणी तन्मयता के साथ यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रवाहित होती रहती है। देखिए -
नमन हिमालय धन्य तुम्हें है, वीर नहीं तुम-सा प्रतिपाल।
युगों-युगों से खड़े हुए हो, हिम का लेकर बड़ा विशाल।
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गीत हिमालय के गाता हूँ।
पादप सँग मैं लहराता हूँ।
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पपीहे सुनाते, सुगम गीत अपने,
सधेगा इन्हें सुन, नया अब तराना।
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कुदरत की कैसी महिमा, फूल पुष्प हैं उगते कमाल।
जगा दिवाकर रंग लाल को, फेंके भू पर रश्मि कमाल।
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घनघोर घटा बिजली चमके, चहुँ ओर हवा बहती सन-सन।
लगता सबको अति जल बरसे, खग वृंद दुखी दुबके कानन।
यदि मैं कहूँ कि प्रकृति-पुत्र-कवि एक प्रकृति-चित्रक से कहीं ज्यादा एक प्रकृति -चिंतक है तो ज्यादा उपयुक्त होगा। इसीलिए इनकी गीतिकाओं मे प्रकृति-क्षरण की पीर स्वतः मुखर हो उठी है।
डरते नहीं प्रकृति से लोभी, यहाँ-वहाँ भू को खोदें,
पादप काट सलोने जग के, मधुवन को भी ढाते हैं।
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हवा पानी मिले 'उद्धव', प्रकृति के इन दरख्तों से,
सदा हिलते रहें पादप, यही हमको दिखाना है।
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पुराने लोग कुदरत को, कभी खोने नहीं देते।
रिवाजों को युवा साथी, मगर ढोने नहीं देते।
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रुको माली करो तुम काम धीरज से बगीचे में,
लता उलझी हुई है जो, उसे भी तो बचाना है।
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सोच रही थी छाँव अभागी, मेरी हल्की छाँव,
पथिक थका अब नहीं रुकेगा, देख अल्प आकार।
कवि स्थूल से सूक्ष्म तक को बड़ी बारीकियों के साथ अध्ययन करता है।
कवि के सूक्ष्म अवलोकन का एक प्रतिदर्श देखिए -
धरा में चींटियाँ बैठी, प्रतीक्षा है तुम्हारी अब,
शिशिर ऋतु में शयन में थे, उन्हें भी आ जगाओ तुम।
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डाली पर बैठी गौरैया, करती है मनुहार।
छज्जे पर दो मुझे बैठने, होगा यह उपकार।
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प्रकृति-प्रेमी, प्रकृति-पोषक, प्रकृति-चिंतक, प्रकृति-संरक्षक होने के कारण श्री देवली जी की अधिकांश गीतिकाओं में तदर्थ पुट
स्वयंमेव ही मुखरित /मिश्रित परिलक्षित होता है। किंतु कवि की संवेदनशीलता अन्य समसामयिक विषयों को भी बड़े ही सुगठित एवं सु-चिंतित तरीके से आत्मसात करती हुई प्रतीत होती है।
देखिए-
भ्रात संसार जाता दिखे युद्ध में,
बारूदों के बवंडर सताने लगे।
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कुछ कहूँ पसीना देकर भी, निज पेट नहीं भर पाते हैं,
कुछ प्रताप के बल से हैं बैठे, आसन शासन निज मंत्रालय।
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पूजा होती आज की, स्वारथ में श्रीमान।
जाते मंदिर शिवाला, दुख हटवाते लोग।
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मंदिर जाकर देखा मैंने, रुपए का अधिकार है।
रुपया पास अगर है सेवक, समझो बेड़ा पार है।
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हे प्रभो यह क्या समय आया धरा में देख लो,
अर्ध वस्त्रों में थिरकती मंच पर नव पीढ़ियाँ।
साहित्य समाज का दर्पण होता है। अतः साहित्यकार को एक सचेतक की भूमिका का निर्वहन करना चाहिए। श्री देवली जी इसके लिए पूर्णतः कटिबद्ध दिख रहे हैं। तभी तो वे लिखते हैं -
स्वार्थी प्रतिनिधि चूना तो, बेड़ा होगा गर्क,
जेब कटेगी लोक की, बिगड़ेगा फिर जोग।
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किताबें तो जगत के ज्ञान का भंडार होती हैं।
अगर मन से पढ़ो इनको सफलता द्वार होती है।
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देता है इतिहास गवाही, जिसने पाप किए जग में,
कुल का नाश हुआ है उनका, बुरे समय बादल छाते।
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गाँव के प्रति अटूट स्नेह रखनेवाला कवि का आह्वान है -
समय-समय जाओ गाँवों में, श्रमिक बनो खेतों के अपने,
वरना संतानें बोलेंगी, क्यों तुमने यह नाव डुबाई।
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दीन-दुःखियों की पीर को जो न समझ पाए, वह कैसा कवि?
श्रमिक की हाय लगती है, प्रताड़ित मत करो इनको,
दिहाड़ी काट कर देना, गरीबों को सताना है।
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हिंदी छंदों पर आधारित सुगठ शिल्पबद्ध प्रत्येक गीतिका के साथ आधार छंद-विधान का उल्लेख संग्रह की उपयोगिता में चार चाँद लगा रहा है। छंदार्थियों के अभ्यास हेतु भी यह संग्रह एक उपयोगी कड़ी सिद्ध हो सकता है। गीतिका की भाषा सरल एवं सर्वग्राह्य है।
गीतिका के साथ-साथ यत्र-तत्र कुछ छांदस मुक्तकों का योग ऐसा लग रहा है मानों, कुसुम की क्यारियों में सूर्यलता के पौधे भी अनायास उग आएँ हों। जैसे सूर्यलता क्यारियों को कलित बनाती हैं, वैसे ही ये मुक्तक गीतिका के रसानंद में अभिवृद्धि कर रहे हैं।
संपूर्ण विवेचन तो संभव नहीं है।तथापि यह अवश्य कहूँगा कि विविध विषयों को आत्मसात किए हुए विविध छंदों पर आधारित चिंतनपरक विविधवर्णी गीतिकाओं से सज्जित यह संग्रह एक पठनीय एवं संग्रहणीय संग्रह है। इस भावसिंचित कृति हेतु प्रकृति-पुत्र श्री उद्धव देवली जी को अनंत शुभकामनाएँ। माता शारदे की कृपा से आपकी लेखनी यों ही प्रवाहमान रहे।
जय हिंदी, जय हिंद।
कृति -हिमालय की गोद से
कृतिकार -श्री उद्धव देवली
प्रकाशक - शुभांजलि प्रकाशन, कानपुर।
मूल्य - 300 (तीन सौ रुपए )
(अमेजन पर उपलब्ध)
-नवल किशोर सिंह
प्रबंध संपादक
संगम सवेरा मासिक ई-पत्रिका
11.10.2022
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-आदरणीय ,सिंह साहब,सादर नमन\\बहुत ही सुंदर समीक्षा की है आपने, आगे निरंतर लिखने हेतु मेरा मनोबल बढाया है\\बहुत बहुत आभार शुभकामनाएं\\🙏🌺\\\
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