एकात्म - सॉनेट
मौन नभमंडल का हूँ मैं, तुम सुरों की रागिनी।
ओज दिनकर का प्रखर मैं,तुम प्रकाशित दामिनी।।
मैं दिवस की प्रार्थना हूँ, निशा की मनुहार तुम।
पुष्प मैं सूरजमुखी का, सुवासित कचनार तुम।।
धीर मैं गहरा जलधि सा, तुम नदी अति चंचला।
हूँ हिमालय- सा अडिग मैं, तुम हो पर्वत शृंखला।।
मैं गगन का मेघ श्यामल, तुम हो सावन की घटा।
मैं हूँ कुसमाकर प्रफुल्लित, तुम मनोहारी छटा।।
नाव हूँ मैं भंवर अटकी, तुम सबल पतवार सी।
चाँद पूनम का मैं, तुम हो नायिका अभिसार सी।।
मैं पथिक चलता निरंतर, तुम अबूझी राह हो।
प्रेम मंदिर मैं पुजारी, तुम अवर्णित चाह हो।।
सम-विषम उपमान सारे, दे रहे संकेत है।।
तन पृथक मेरे तुम्हारे, आत्मा पर एक है।।
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प्रो. विनीत मोहन औदिच्य (अंग्रेजी विभाग)
(कवि, सोनेटियर एवं ग़ज़लकार)
सागर, मध्यप्रदेश
सोनेट प्रकाशन हेतु संगम सवेरा के पदाधिकारियों का हार्दिक अभिनंदन सह आभार 💐🙏
जवाब देंहटाएंअति सुंदर हृदयस्पर्शी रचना सर 🙏🌹💐💐 अनंत बधाई 🌹🙏
जवाब देंहटाएंसोनेट की सराहना हेतु हार्दिक अभिनंदन एवं आभार आपका अनिमा जी 💐🙏
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