खोखले रिश्ते (लघुकथा)- निर्मल कुमार डे
खोखले रिश्ते (लघुकथा)
लाइलाज कैंसर से पति की मृत्यु आखिर हो ही गई। मुंबई से इलाज कराने के बाद पति जीवन के अंतिम छह महीने बिस्तर पर ही बिताया और बिस्तर पर ही अपनी अंतिम सांस भी ली।
इस दुर्दिन के छह महीनों में अपने पराए सबों को अच्छी तरह जान गई चालीस साल की मालती देवी।
कुछ बहुत ही करीबी रिश्तेदार कभी सुध लेने तक नहीं आए और आज जब पति नहीं रहे तो घड़ियाली आंसू बहाने आ गए।
मालती देवी दुखी थी और असहाय भी। तीन संताने अभी नाबालिग ही थी। पिता के चले जाने के बाद अब मां ही तो है बच्चों की एकमात्र अभिभावक। अपने रिश्तेदारों के प्रति मन में घृणा हो गई थी परन्तु श्राद्ध कर्म में बुलाना ही पड़ेगा सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के कारण, अतः अपनी भावना को प्रकट नहीं होने दी।
उसे आज रघु बाबू ही अच्छे लगे। रघु बाबू और उनकी मां कई बार बीमार पति को देखने सुनने आए थे।रघुबाबू अपना रिश्तेदार नहीं लेकिन गांव के प्रभावशाली व्यक्ति हैं और सुख दुख में सबों का साथ जरूर देते हैं।
बरसों पहले किसी बात को लेकर रघु बाबू और उनके पति के बीच बहस भी हुई थी परन्तु दोनों के संबंध में कोई खटास पैदा नहीं हुआ।
रघु बाबू ने मालती देवी से कहा, चाची,अब आपको हिम्मत से काम करना होगा। आप अपनी इच्छा बताएं आगे क्या करना है। शाम तक हमलोग गंगा घाट पर अंतिम क्रिया की सारी रस्में पूरी कर लेंगे।
गाड़ी की व्यवस्था? मालती देवी ने प्रश्न किया।
आपको इसकी चिंता नहीं करनी है। रघु बाबू ने कहा।
"ठीक है बेटा, जो भी खर्च होगा मैं सब वहन कर लूंगी।
इतना कह मालती देवी ने बड़े बेटे को बुलाकर रघु बाबू के सामने कहा,रघु बाबू के साथ मिलकर पिताजी की अंतिम क्रिया की तैयारी करो।
अपराधबोध से ग्रस्त कुछ रिश्तेदार कुछ न कुछ करने का नाटक कर रहे थे।
मौके पर हाजिर एक बुजुर्ग को टिप्पणी करते हुए सुना गया, खोखले रिश्ते से दुश्मनी अच्छी होती है।
-निर्मल कुमार दे
जमशेदपुर
झारखंड
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