कुलटा (कहानी)- मौसमी चंद्रा
कुलटा (कहानी)
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ओह! दो बज गए।आज के दिन हद भीड़ रहती है।मानो पूरा शहर ही मंदिर पहुंच गया।इसीलिये तो बच्चे मुंह फुला लेते हैं।मंदिर जाने के नाम पर।
और दक्ष..! वो तो खुद नापसन्द करते हैं।कत्तई जाना नहीं चाहते साल के पहले दिन मंदिर!कहते हैं पूरा साल सामने है, किसी दिन भी चले जाना.. पर नहीं.. तुम्हें आज ही जाना होता है।धक्के खाकर पुण्य कमाने का शौक!
बोलने दो! मैं कौन सा कान देती हूँ इनकी बातों पर!साल की शुरुआत हो और ईश्वर का दर्शन न हो, फिर कैसी शुरुआत!
दरवाजा खोलते ही देखा, टेबल पर रखा मोबाइल घनघना रहा था.. बुआ का फोन!
"सॉरी बुआ! फुर्सत ही नहीं मिली।"
"सॉरी हटाओ! पहले आशीर्वाद तो लो औऱ तुम फोन करो या मैं!क्या फर्क पड़ता है?"
"नए साल का प्रणाम बुआ।आप स्वस्थ रहे,दीर्घायु रहे।"
मैंने कहा।
"अच्छा! अब तू देगी मुझे आशीर्वाद!"
बुआ हंसने लगी।
"क्यों?छोटे विश नहीं कर सकते?"
--मुझे भी हँसी आ गयी।
"कर सकते हैं मेरी लाडो।खूब खुश रह,ईश्वर तुझे...और तुझे ....!"
"बस...बस!बुआ आपके आशीर्वाद की लिस्ट लम्बी है।एक आप हो, और एक बड़ी बुआ!न फोन करती हैं न मेरा उठाती है।बिल्कुल कट गई है परिवार से।"
"न..न.. लाडो! दिल छोटा न कर।"
मेरी बुझी आवाज सुन बुआ बीच में बोल पड़ी--
"उससे गुस्सा मत हो।दिदिया दिल की बुरी नहीं, वो तो..वो सोनी की वजह से भागती है सबसे।कहीं कोई उसके बारे में न पूछ लें।एक तो औलाद का दर्द।उसपर लोगों के सौ सवाल!जीवनभर का टीस दे दिया भगवान ने उसे।बेटी को पढ़ाओ,लिखाओ,पैसे जोड़कर शादी करो और पति बीच रास्ते में छोड़कर किसी औऱ के साथ चल दे।प्राण हरने वाला कष्ट है।"
"अभी तक ठीक नहीं हुआ न बुआ?वैसे ही है क्या सब?बड़ी बुआ जब से दिल्ली बसी।तभी से कोई खोज खबर नहीं!न भेंट-मुलाकात,न फोन न चिट्ठी!आपकी कैसे बात हुई?"
मैंने पूछा।
"बात नहीं हुई मेरी!ये गए थे दिल्ली!घर गए थे मिलने।
4 सालों से तलाक का केस चल रहा है। जानती हो न,कोर्ट कचहरी का चक्कर!पहले तो कहती थी दूसरी शादी करवा दूँगी बेटी की।लेकिन उम्र कहाँ ठहरती है लाडो।अब तो सोनी की बेटी 14 साल की हो गयी!कौन करेगा शादी जवान बेटी की माँ से?"
फिर थोड़ा हुलस कर बुआ बोली-
" एक अच्छी खबर है!उसके पति की प्रेमिका ने उसे छोड़ दिया है...शायद..!शुरू में तो सोनी के पति ने खूब परेशान किया पर अब वो भी थक गया है।दिदिया को उम्मीद है कि वही सुधर जाएं, फिर छुट्टी मिले इन कोर्ट, कचहरी, दुनिया, समाज बदनामी, इन सब से!तू भी मना बेटा, हो सकता है तुम्हारी सुन ले।तुम्हारी जरूर सुनते हैं भगवान जी तभी तो दक्ष..!"
आगे के शब्द बुआ के गले में ही जम गए।मैं समझ गयी थी उनके अधूरे शब्दों का मर्म।
"चलो रखती हूं बाद में बात करूँगी।"
बुआ असहज हो गयीं।
"जी बुआ।"
मैंने फोन रखकर सर घुमाया।दक्ष दोनों बच्चों के साथ गुब्बारे से खेलने में मशगूल थे।
कितने खुश थे बच्चे।छः साल से इस खिलखिलाहट को सुनने के लिए कान तरस गए थे जैसे।अब जाकर नसीब हुआ।
मेरी हालत तो सोनी से भी गई गुजरी थी।कितने महीने, कितने साल छुपा कर रखा सबसे।बोलती भी तो कैसे?
पति ने छोड़ दिया!!!
मतलब रिजेक्ट कर दिया!उसे कोई और अच्छी लगी!मुझसे ज्यादा!अपनी जिंदगी के इतने साल देने के बाद भी रिजेक्शन का लेवल!कितना दर्द देता है...देने वाला नहीं समझ सकता।न उसे इस बात से मतलब रहता है कि उसके पीछे उसकी पत्नी ने घर कैसे सम्भाला..?या बच्चे कैसे संभाले..?
उसे बस इस बात की तसल्ली रहती है कि जब उसका मन करेगा वो लौट सकता है। उसका परिवार उसके लिए है!सबसे आश्चर्य की बात! सच में परिवार के लोग उसके इंतज़ार में होते हैं और काटते हैं कई-कई दिन..!कई-कई साल..!
कभी तो सुबह का भूला शाम में लौटेगा!
जब उसका दिल भर जाएगा बाहर के खाने से!घर का खाना तो थाली में परोसा है ही उसके लिए!
मैंने उंगलियों से ढुल आये बूंदों को पोंछा।
जो झेला वो दर्द तो असह्य था ही पर इस तकलीफ का क्या?इन छः सालों में उसके मन के रिक्त कोने में जो आ गया है,अब उसे कैसे निकाले?
क्या कहे की मंजिल से भटका पंछी वापस लौट आया अपने घोंसले में!अब तुम जाओ...क्योंकि एक औरत को हक़ नहीं अपने दिल की सुने!अगर वो अपने दिल की सुनती है तो कुलटा,बेशरम, बेहया भी सुनने को तैयार रहना होगा।
पति दो नाव पर पैर रखे तो ठीक,वो चीट करे तो ठीक बाकी पत्नि के लिए अलग मानक तय होते हैं।
आँखें फिर भींग गयी।मैंने अपनी पीली साड़ी का कोना पकड़ा तभी लगा तुम मुस्कुराकर अपने हाथों से मेरे आँसू पोंछ रहे हो।
तुम्हारी दी हुई साड़ी!वो भी तुम्हारी पसन्द का रंग! कैसे गीली होने दोगे?
जिसकी मुस्कुराहट ,जिसकी बातों ने मुश्किल वक़्त में सम्बल दिया, उसे नहीं निकाल सकती मन से!
बच्चे.. घर... गृहस्थी अपनी जगह!तुम अपनी जगह समीर!
अब तुम नहीं निकलोगे।जानती हूं कि तुम्हारा मेरी जिंदगी में होना एक स्वप्न है।अब दक्ष ही मेरा यथार्थ है पर मैं इस स्वप्न और यथार्थ दोनों को लपेटकर चलने की कोशिश करूँगी। तुम्हारा होना गृहस्थी के इन बीहड़ ऋतुओं को झेलने की शक्ति देगा मुझे।
जब तक बन सके संतुलन तब तक ठीक है जब नहीं तब सुन लूँगी कुलटा,बेशरम,बेहया!आखिर दक्ष जैसे भटके परिंदे को भी तो पता चले उसने क्या खोया।
रही तुम्हारी बात तो मेरे दिल के देहरी पर एक दीया तुम्हारे नाम का हमेशा जलता रहेगा।भले ही हम नदी के दो तटबंध रहे,आलिंगन न कर सके पर दूर रहकर भी एक-दूसरे को देखेंगे...वैसे भी प्रेम में आँखों का आलिंगन सर्वोपरि है।
दीये की चमक चेहरे पर आ गयी।लगा भीतर का बोझ हल्का हो गया।सोफे पर बैठे दक्ष ने हाथों का कप बनाकर इशारा किया।
अभी बनाती हूँ..
मैंने साड़ी के आंचल को अपनी कमर पर लपेट लिया और किचन की ओर बढ़ गयी।
- मौसमी चंंन्द्रा
कवयित्री व कहानीकार
पटना,बिहार।
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मौसमी की बहुत अच्छी रचना है । लिखती रहिए ।शुभ कामनाएं ।
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