मकान की छत (कहानी)- कल्पना सिंह
"मां, आखिर अब इस घर में बचा ही क्या है?पापा के जाने के बाद तुम भी बिल्कुल अकेली हो गई हो।मुझे रोज रोज छुट्टी नहीं मिलने वाली।सामान बांधो और चलो मेरे साथ",रोहन ने लगभग चीखते हुए कहा सावित्री ने लम्बी सांस भरी और शांत भाव से बोली,"बेटा, मैं इस छत को छोड़कर कैसे चली जाऊं?इसमें तुम्हारे पापा और तुम्हारे बचपन की न जाने कितनी खट्टी मीठी यादें जुड़ी हुई हैं।मुझे वह घड़ी अच्छी तरह याद है जब तुम्हें अपनी बांहों में लिए अस्पताल से सीधे इसी घर में अाई थी।इस घर के कोने कोने में मुझे आज भी तुम्हारी किलकारियां सुनाई देती है।तुम अपने छोटे छोटे पैरों से जब यहां से वहां दौड़ते थे,आंखमिचौली खेला करते थे,,,,"कहते हुए वह अतीत की यादों में डूबती चली गई।मां,बस भी करो जब देखो तब वही पुराने घिसे पिटे रिकॉर्ड की तरह बजना शुरू हो जाती हो।मुझे कुछ नहीं सुनना।बीच में ही टोकते हुए रोहन ज़ोर से बोला।कल सुबह सात बजे तक तैयार हो जाइएगा।आप मेरे साथ चल रही हैं। सावित्री कुछ कहती इससे पहले ही रोहन सोने के लिए चला गया।
सावित्री के पति सोमशंकर तकनीकी कॉलेज में प्रोफेसर थे।रोहन की परवरिश में कोई कमी न रह जाए,इसलिए सावित्री ने नौकरी न करके गृहणी बनना पसंद किया। पति ने भी इसमें अपनी सहमति दर्शाई।यद्यपि उसने गणित विषय में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की थी। उन दोनों का निर्णय सही साबित हुआ।रोहन ने आई आई टी की परीक्षा प्रथम प्रयास में ही अच्छे अंकों के साथ पास कर ली।पढ़ाई पूरी होते ही एक अच्छी सी नौकरी भी मिल गई।सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था कि तभी अचानक एक दिन शाम को टहलते समय सोम शंकर गश खाकर गिर पड़े।पड़ोसियों की मदद से किसी तरह अस्पताल ले जाया गया तो पता चला कि हार्ट अटैक आया है।जांच के दौरान दो आर्टरीज में अस्सी प्रतिशत के आसपास ब्लॉकेज था।तुरंत ऑपरेशन के लिए कहा गया। उस समय रोहन की पोस्टिंग अहमदाबाद में थी। उस समय एयरलाइंस वाले अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर थे। ट्रेन से पहुंचने में वक्त लगता इसलिए समय न गंवाते हुए आनन फानन में एयर टैक्सी से दिल्ली ले जाया गया किन्तु ऑपरेशन थियेटर में ही उन्होंने दम तोड दिया।रोहन की इच्छा थी कि मां उसके साथ चलकर रहे।अंतिम संस्कार की सभी रस्में पूरी करने के बाद उसने मां के आगे यह प्रस्ताव रखा तो सावित्री ने मना कर दिया।रोहन ने सोचा कि शायद ताज़ा माहौल है बाद में आकर ले जाऊंगा।इसीलिए वह चार दिन की छुट्टी लेकर यहां आया था।
सावित्री को नींद नहीं आ रही थी। वह अजीब सी बेचैनी का अनुभव कर रही थी।आखिर कैसे उन यादों को छोड़कर ऐसे ही चली जाए जो उसके लिए जीने का आधार थीं।ये सच था कि रोहन और बहू उसे प्यार व सम्मान से रखते लेकिन उसके मन का क्या को अपने सिर की इस छत को छोड़कर जाने को कतई तैयार नहीं था।ये यादें ही तो उसकी सांसें थी और सांसों के बिना देह का क्या मोल? सोचते सोचते आंख कब लग गई पता ही नहीं चला।सुबह रोहन उठा और मां को आवाज़ लगाई लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला।
वह तेज क़दमों से मां के कमरे की गया।किवाड़ आधा खुला हुआ था।झांककर देखा तो मां बिस्तर पर करवट लिए लेटी हुई थी।अच्छा ,जाना न पड़े इसलिए अभी तक नहीं उठीं हैं लेकिन अब मैं आपका कोई तर्क नहीं मानूंगा।चलिए उठिए,कहते हुए उसने जैसे ही सावित्री को सीधा करना चाहा उसका बेजान शरीर एक ओर लुढ़क गया।उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे और उसकी खुली आंखे अपने मकान की छत को ताक रही थीं।
--कल्पना सिंह
आदर्श नगर, बरा,रीवा (मध्यप्रदेश)
★★★●★★★
मार्मिक बहुत सुंदर
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