दस साल बाद (लघुकथा)- कल्पना सिंह

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दस साल बाद (लघुकथा)

दिल्ली के प्रगति मैदान में गत वर्ष की भांति इस वर्ष भी भव्य पुस्तक मेला का आयोजन किया गया था।चारों ओर दूधिया रोशनी और चहल पहल थी।काफी लोग आए हुए थे और बड़ी तल्लीनता से अपनी अपनी रुचि के अनुसार पुस्तकें देखने में लगे हुए थे।इस मेले की सबसे चर्चित पुस्तक के रचनाकार एक उभरते हुए युवा लेखक  डॉक्टर प्रफुल्ल कुमार एक कोने में बड़े शांत भाव से खड़े होकर अपनी माताजी से बातें करने में मशगूल थे कि तभी एक आवाज़ उनके कानों में पड़ी,"आपका ऑटोग्राफ मिल सकता है क्या?"स्वर काफी जाना पहचाना सा लगा इसलिए प्रफुल्ल तुरंत उस आवाज़ की ओर मुड़े।सामने मोटे प्रेम का चश्मा लगाए गुलाबी रंग का चूड़ीदार सूट पहने एक युवती खड़ी थी।चेहरे पर वही चिर परिचित मुस्कान।"अरे इतना गौर से क्या देख रहे हो,पहचाना नहीं,मैं हूं राधिका। कहां रहे इतने दिन?, मालूम है पूरे दस साल बाद मिल रहे हैं हम दोनों।न कोई खबर न कोई पता।आप भी कुछ कहोगे कि मैं ही बोलती रहूं," उसने एक ही सांस में सारी बातें बोल डाली।प्रफुल्ल हतप्रभ से देखते रह गए।

राधिका कॉलेज में प्रफुल्ल की जूनियर थी।फ्रेशर्स पार्टी में उसके द्वारा गाए गए गीत ने अनायास ही उसका ध्यान आकर्षित किया था। वह दुबली पतली सी,गेंहुआ वर्ण,मझौले कद काठी वाली मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की थी।पढ़ाई के साथ साथ गायन और खेलकूद में भी उसकी सघन रुचि थी। हां,एक और ख़ास बात जो उसे औरों से अलग करती थीं वह यह कि वो बोलती बहुत थी।इसके ठीक विपरीत प्रफुल्ल धीर गंभीर व्यक्तित्व वाले तथा मितभाषी थे।कॉलेज लाइब्रेरी में अक्सर उनकी मुलाकात हो जाया करती थी जो केवल हाय हैलो तक ही सीमित रही।यद्धपि दोनों को एक दूसरे का सानिध्य बहुत भाता था।जब कभी राधिका नहीं आती तो प्रफुल्ल बेचैन हो उठते।इसका कारण समझते समझते काफी देर हो गई।ग्रेजुऐशन की परीक्षा खत्म होते ही वह अचानक बिना किसी को कुछ कहे सुने चली गई।प्रफुल्ल ने इसे एक तरफा चाहत समझ कर भूल जाना ही उचित समझा किन्तु लाख कोशिशों के बाद भी वे ऐसा नहीं कर सके।उन्होंने आजीवन विवाह न करने का निर्णय कर लिया। मां के जिद करने पर उल्टा उन्हें समझा दिया कि ऐसी शादी का क्या अर्थ जिसे मैं निष्ठापूर्वक न निभा सकूं।उन्होंने अपना पूरा ध्यान काम और लेखन में लगाना शुरू कर दिया।
समय पंख लगाकर उड़ गया।

आज पूरे दस साल बाद अपनी चाहत को सामने देखकर वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या प्रतिक्रिया दें।कैसे उसे बताएं कि उनका पहला और आखिरी प्रेम और उन्हें ख्याति दिलाने वाली प्रेरणा स्रोत वही है। हैलो, मैं आपसे ही पूछ रही हूं, कहां रह रहे हैं आजकल?राधिका के प्रश्न ने उन्हें अतीत की यादों से खींच निकाला।अचकचा कर उत्तर दिया, यहीं दिल्ली में ही श्री राम कॉलेज में प्रोफेसर हूं। मन में ढेर सारे प्रश्न उमड़ रहे थे ।इच्छा हो रही थी कि उसके शादी और बच्चों के बारे में पूछें लेकिन इतना ही बोल सके," तुम क्या करती हो?"उसने बताया कि वह राजस्थान के वनस्थली आवासीय विद्यालय में संगीत सिखाती थी। पिताजी की तबीयत बहुत खराब थी इसलिए बिना किसी को खबर किए अचानक जाना पड़ा था।काफी लंबा इलाज चला।घर की जिम्मेदारी निभाने के लिए नौकरी करनी पड़ी ।आगे की पढ़ाई भी नहीं कर सकी।अब सब ठीक है।पापा का स्वास्थ्य अच्छा है और भाई भी अपनी गृहस्थी में खुश है।अभी कुछ दिन पहले ही दिल्ली के पब्लिक स्कूल में ज्वाइनिंग हुई है।बातों बातों में दोनों को यह पता चल गया कि दोनों अविवाहित हैं। प्रफुल्ल ने शादी न करने की वजह पूछी तो उसने हंसकर टाल दिया।कुछ देर तक चुप्पी छाई रही।दोनों ने कॉफी पीकर एक दूसरे से विदा ली।

  प्रफुल्ल देर रात तक यहां से वहां टहलते रहे।काफी सोच विचार के बाद मन ही मन कुछ निर्णय लिया और निश्चिंत होकर सो गए।सुबह होते ही राधिका के घर जा पहुंचे और उसके आगे यह कहते हुए विवाह का प्रस्ताव रख दिया कि यदि उसे मंजूर नहीं तो मना कर सकती है।राधिका यह सुनकर उनके गले से लिपट गई।दस साल बाद ही सही एक अधूरी प्रेम कहानी अब पूरी हो चुकी थी।



--कल्पना सिंह
पता:आदर्श नगर, बरा, रीवा ( मध्यप्रदेश)
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