प्राचीन बनाम आधुनिक विज्ञान (आलेख)- घनश्याम सहाय
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प्राचीन बनाम आधुनिक विज्ञान
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यह आलेख मेरे द्वारा लिखा हुआ नहीं है मैनें इसे गुगल पर विभिन्न विद्वानों के विचार पढ़ कर लिखा है।मैं तो स्वभावतः व्यंग्यकार हूँ किन्तु जैसे-जैसे अपने प्राचीन ग्रंथों में उतरता गया मेरे द्वारा अर्जित शिक्षा बेमानी लगने लगी और स्वयं का ही शिक्षित जीवन एक व्यंग्य लगने लगा।हृदय यह सोचने पर विवश हुआ कि क्या हमारे बड़ो ने हमारे प्राचीन शास्त्रों से हमारा परिचय न करा कर अपराध किया? प्रश्न बहुत छोटा है किन्तु बड़ा ही व्यापक अर्थ लिए हुए है।
अचानक एक पुराना चुटकुला याद आ गया--हृदय मुस्कुरा उठा लेकिन विचारों से प्रश्न की गंभीरता का लोप नहीं हुआ।चुटकुला कुछ यूँ था---
गाँव के ताउ ने गाँव में घूम रहे एक लड़के से पूछा--ओए बलजीत!दिन भर इधर-उधर तू आवारागर्दी करते फिरै से कभी पढ़-पुढ़ लिया कर।
बलजीत--पढ़ता तो हूँ ताऊ।
ताऊ-तू पढ़ता भी है।तो चल एक बात बता-- ताजमहल कहाँ सै?
बलजीत,ताऊ की रोज-रोज की झिक-झिक से परेशान था--सोचा क्यों न आज ताउ के सामान्य ज्ञान की परीक्षा ले ली जाए--जे ताउ रोज-रोज मेरे सामान्य ज्ञान की परीक्षा लेता है।
बलजीत--ताउ,चल मैं तो आवारा हूँ,दिनभर आवारागर्दी करता हूँ--तू तो घर में रहता है--चल जे बता--रामलाल कठे रहवे सैं--
ताउ--मन्ने नी पता---जे रामलाल कोंण से।
बलजीत--ताउ,रामलाल तेरा पड़ोसी है।ताउ!कभी घर में भी रह लिया कर। ताउ तुझे दूर के ताजमहल का पता है लेकिन पड़ोस के रामलाल के बारे में नहीं पता--ताउ कभी घर में भी झाँक लिया कर।इतना कह बलजीत चला गया लेकिन बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गया।
ठीक ताउ की ही हालत है,हम हिन्दुस्तानीयों की--भारतीयत ग्रंथों का पता नहीं और पाश्चात्य के ग्रंथों को महिमामंडित करते अघाते नहीं।
आज मैनें विद्यालय के विज्ञान शिक्षक से पूछा--
भाई ये बताओ ये जो तुम क्लास में परमाणु सिद्धांत के बारे में बता रहे थे इस सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया--
शिक्षक ने सीधे कहा--डाल्टन ने।
मैं--यह सिद्धांत क्या कहता है महोदय?
शिक्षक--सर!यह सिद्धांत कहता है कि--
“प्रत्येक पदार्थ छोटे-छोटे कणों से मिलकर बना होता है जिन्हें परमाणु कहते हैं और परमाणु को किसी भी भौतिक या रासायनिक विधि से विभाजित नहीं किया जा सकता है।
प्राचार्य होने के नाते मैनें पूछ दिया--भाई!कभी ऋषि कणाद का नाम सुना है?इस ऋषि ने डाल्टन के पैदाईश के सैकड़ो साल पहले ही अपने वैशेषिक दर्शन में परमाणु की व्याख्या कर दी थी--
ईसा से 600 वर्ष पूर्व ही ऋषि कणाद ने परमाणुओं के संबंध में बात कही और ऋषि कणाद द्वारा कही गई बात आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन की संकल्पना मेल खाती है यह भी कहा जा सकता है कि परमाणु की संकल्पना डाल्टन ने यहीं से चुराई होगी। कणाद ने जॉन डाल्टन से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त को बता दिया था। महर्षि कणाद ने परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिसमें तत्व के सभी गुण उपस्थित होते हैं और इन अविभाज्य कणों को 'परमाणु' नाम भी ऋषि कणाद ने ही दिया था।कणाद ने यह भी बताया कि परमाणु कभी स्वतंत्र नहीं रह सकते।महर्षि कणाद ने यह भी बताया कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर 'द्विणुक' का निर्माण कर सकते हैं। जैसे--O+O=O2, H+H=H2 ऋषि कणाद ने यह भी बताया कि अलग-अलग पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं जैसे--H2+O2=2H2O ऋषि कणाद ने वैशेषिक सूत्र में यह भी माना है कि परमाणु सतत गतिशील रहते हैं।उन्होंने अपने वैशेषिक दर्शन में द्रव्य के संरक्षण की भी व्यख्या की है।
मेरे विद्वान शिक्षक,कणाद के इसी वैशेषिक दर्शन से पश्चिम के विद्वानों ने ये बातें चुराई हैं। मित्र! तुम्हारे पश्चिम की ओर देखने से मुझे कोई बहस नहीं लेकिन कभी-कभी घर में भी झाँक लेना चाहिए,हो सकता है कहीं पश्चिमी ज्ञान से उत्तम ज्ञान अपने घर में ही उपस्थित हो।
महर्षि कणाद ने संसार को परमाणु को ही समझाने में अपना जीवन दिया, उन्होंने इसे ही सृष्टि का मूल तत्व माना। शास्त्र कहते हैं कि जीवन के अंत में उनके शिष्यों ने उनके अंतिम समय में प्रार्थना की कि कम से कम इस समय तो परमात्मा का नाम ले लें, तो जानते हो,कणाद ऋषि के मुख से निकला पीलव: पीलव: पीलव: अर्थात् परमाणु, परमाणु, परमाणु--और तुम्हारे जैसे लोग डाल्टन को इसका श्रेय देते हो--धिक्कार है।
मैं--भौतिक शास्त्र पढ़े हो न एक बात बताओ गुरुत्वाकर्षण के बारे में सबसे पहले किसने बताया।
शिक्षक--निस्संदेह न्यूटन ने।
मैं--भास्कराचार्य पहले या न्यूटन?
शिक्षक--ये भास्कराचार्य कौन है?
मैं--भास्कराचार्य को नहीं जानते?भाई कभी अपने भारतीय ग्रंथों में भी झाँक लिया करो।भास्कराचार्य एक महान गणितज्ञ थे जिन्होंने ने सबसे पहले गुरत्वाकर्षण को पहचाना--आपके न्यूटन ने नहीं---
भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस कारण आकाशीय पिण्ड पृथ्वी पर गिरते हैं’।मित्र,न्यूटन के जन्म से आठ सौ वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने अपने "गोलाध्याय" ग्रंथ में "माध्यकर्षणत्व" ने नाम से गुरत्वाकर्षण की व्याख्या कर दी है।
इसका तो अर्थ यही निकलता है कि न्यूटन के पहले भी पेड़ से सेव गिरा करते थे लेकिन गुरत्वाकर्षण के लिए तुम्हारा आधुनिक विज्ञान श्रेय किसे देता है न्यूटन को।महान भास्कराचार्य के ग्रंथों से आधुनिक विज्ञान के पश्चिमी गणितज्ञों और वैज्ञानिकों ने न जाने कितने ही सिद्धांत चुराये हैं।माना कि न्यूटन महान था लेकिन भास्कराचार्य से अधिक नहीं।मैं तो यही कहूँगा कि आपके न्यूटन ने मेरे भास्कराचार्य के सिद्धांत की चोरी की है।
शिक्षक--सर,अब जो पढ़ाया जाएगा वही न हम पढ़ेंगे।
मैं सोच में पड़ गया क्या भारतीय शिक्षा प्रणाली ज्ञान के लिए सोने को छोड़ पीतल की ओर भाग रही है।शिक्षक के पास मेरे तर्क का कोई उत्तर नहीं था लेकिन वह मेरी बातों से प्रभावित था मैनें धड़ाधड़ और कई उदाहरण दे डाले--
गति के नियम--
मित्र!तुम्हारा आधुनिक विज्ञान मानता है कि गति के नियम तुम्हारे महान न्यूटन ने दिया लेकिन फिर ऋषि कणाद ने गति के संदर्भ में अपने वैशेषिक दर्शन में ऐसा क्यों लिखा---
वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते।
वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते।
नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतु।
वेगः संयोगविशेषविरोधी॥
अर्थात् वेग पांचों द्रव्यों पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।यह तो यही सिद्ध करता है कि न्यूटन से बहुत पहले ही ऋषि कणाद ने गति के नियम को प्रतिपादित कर दिया था।मेरे तर्कों से सहमत हो या नहीं।शिक्षक निरुत्तर था।
मैनें कहा आओ मैं तुम्हें प्रकाश की गति की गणना के बारे में अपने शास्त्रों में वर्णित सिद्धांतों को समझाता हूँ---
मित्र,तुम्हारा आधुनिक विज्ञान मानता है न प्रकाश गतिशील है और उसकी चाल निर्वात में 299,792,458 मीटर प्रति सेकेण्ड है, जिसे 3 लाख किमी/सेकेंड कह दिया जाता है या 186000 मील/सेकेंड।
मित्र भारत में चौदहवीं शताब्दी में एक ऋषि हुए ऋषि सायण जो वेदों के भाष्यकार थे।
माना जाता है की आधुनिक काल में प्रकाश की गति की गणना स्काटलैंड के जेम्स मैक्सवेल ने 18 शताब्दी में की लेकिन महर्षि सायण ,ने 14वीं शताब्दी में प्रकाश की गति की गणना कर डाली थी जिसका आधार ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 50 वें सूक्त का चोथा श्लोक है ।
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥
अर्थात् हे सूर्य, तुम तीव्रगामी एवं सर्वसुन्दर तथा प्रकाश के दाता और जगत् को प्रकाशित करने वाले हो।इस श्लोक के आधार पर महर्षि सायण ने निम्न श्लोक प्रस्तुत किया
तथा च स्मर्यते योजनानां सहस्त्रं द्वे द्वे शते द्वे च योजने एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते॥
-सायण ऋग्वेद भाष्य
अर्थात् आधे निमेष में 2202 योजन का मार्ग क्रमण करने वाले प्रकाश तुम्हें नमस्कार है।इस श्लोक से हमें प्रकाश के आधे निमिष में 2202 योजन प्रकाश चलता है।आओ अब समय की ईकाई निमिष तथा दूरी की ईकाई योजन को आधुनिक ईकाईयों में परिवर्तित करें।
निमेषे दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कलाः।
त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यात् अहोरात्रं तु तावतः।।
मनुस्मृति
मनुस्मृति के अनुसार पलक झपकने के समय को--
1 निमिष कहा जाता है !
18 निमीष = 1 काष्ठ;
30 काष्ठ = 1 कला;
30 कला = 1 मुहूर्त;
30 मुहूर्त = 1 दिन व् रात (लगभग 24 घंटे )
अतः एक दिन (24 घंटे) में निमिष हुए :
24 घंटे = 30×30×30×18= 486000 निमिष
24 घंटे में सेकंड हुए = 24×60×60 = 86400 सेकंड
86400 सेकंड =486000 निमिष
अतः 1 सेकंड में निमिष हुए :
1 निमिष = 86400 /486000 = 0 .17778 सेकंड
1/2 निमिष =.08889 सेकंड
अब योजन ज्ञान करना है , श्रीमद्भागवत के अनुसार
1 योजन = 8 मील लगभग
2202 योजन = 8 × 2202 = 17616 मील
सूर्य प्रकाश 1/2 (आधे) निमिष में 2202 योजन चलता है अर्थात
0.08889 सेकंड में 17616 मील चलता है ।
0.08889 सेकंड में प्रकाश की गति = 17616 मील
1 सेकेंड में = 17616 / 0.08889 = 198177 मील लगभग।आज की प्रकाश गति गणना 186000 मील प्रति सेकंड लगभग
(साभार सायण विकिपीडिया)
मित्र घबड़ाओ नहीं तुम्हारा न्यूटनीय ज्ञान छीन नहीं रहा हूँ बस अपने शास्त्रों में वर्णित तुम्हारे आधुनिक विज्ञान की बात बता रहा हूँ।
ब्ह्माण्डीय पिंडो के बीच की दूरी--
मित्र ये बताओ तुम्हारे विज्ञान के अनुसार सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी कितनी है--15 लाख 36 हजार कि० मी० न--देखो हमारे शास्त्रों ने तुम्हारे आधुनिक विज्ञान से पहले ही इसे कैसे खोज लिया---
इसे गोस्वामी तुलसीदास ने तब सिद्ध कर दिया था जब तुम्हारे नासा का जन्म भी नहीं हुआ था--तुम्हारी बौधिकता का गर्भाधान भी न हुआ था---
गोस्वामी जी लिखते हैं--
जुग सहस्त्र जोजन पर भानु।
लील्यो ताहि मधुर फल जानु।।
अर्थात हनुमान जी ने एक युग सहस्त्र योजन पर स्थित भानु को मीठा फल समझ कर खा लिया।अब मैं इसकी वैज्ञानिक प्रमाणिकता को मैं तुम्हें समझाता हूँ---
'युग' का अर्थ चार युग--कलयुग, द्वापर, त्रेता और सतयुग। कलयुग में 1200 साल, द्वापर में 2400 साल, त्रेता में 3600 और सतयुग में 4800 वर्ष माना जाता है, जिनका कुल योग 12000 साल हुआ, 'सहस्त्र' का मतलब 1000 साल । 'योजन' का मतलब 8 मील और 1 मील में 1.6 किमी, अब यदि 1 योजन को युग और सहस्त्र से गुणा कर दिया जाए तो 8 x 1.6 x 12000 x 1000=15,36,00000 अर्थात
15 करोड़ 36 लाख किमी जोकि सूर्य से पृथ्वी के बीच की प्रमाणिक दूरी है जिसे तुम्हारे तथाकथित वैज्ञानिक शोधों की सर्वोच्च संस्था "नासा" ने भी प्रमाणित किया है।
मित्र,सबसे पहले हायपोथेसिस बनती है फिर थ्यौरी आती है और फिर प्रयोगों के आधार पर तुम्हारे तथाकथित वैज्ञानिक अपनी उपलब्धि बता अपनी पीठ थपथपाते हैं जिसका जिक्र हमारे शास्त्रों में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। तुम्हारे जैसे मूर्ख उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते और हमारे सनातनी भारतीय ग्रंथों को हेय दृष्टि से देखते हैं।
मित्र--वह कैसे?
मैं--एक बात बताओ--पहले कृष्ण कि न्यूटन?कृष्ण न! तो कृष्ण की तर्जनी के चारों ओर घूमता चक्रसुदर्शन किस वैज्ञानिक सिद्धांत पर काम करता है। राईट ब्रदर्स के वायुयान के अविष्कार के बहुत पहले ही देवराज इंद्र के पास पुष्पक विमान हुआ करता था। वैदिक भाष्यों में विमानशास्त्र से जुड़ा एक अध्याय ही है जिसे तुम चैप्टर कहते हो।आयुधों में तब ब्रह्मास्त्र,पशुपतास्त्र जैसे न जाने कितने ही विध्वंसक शस्त्र हुआ करते थे।महाभारत काल में अर्जुन द्वारा सिंधु नरेश जयद्रथ वध की कथा याद करो--अर्जुन ने जयद्रथ को बाण किस कोण से,किस गणितीय गणना के अनुसार मारा होगा कि जयद्रथ का सिर मीलों दूर बैठे उसके पिता की गोद में जा गिरता है--मित्र शायद यहीं से मिसाइल की परिकल्पना की गई होगी।
खैर छोड़ो तुम मानोगे नहीं।तुम अपने आधुनिक विज्ञान के साथ जुटे रहो मैं अपने शास्त्रों संग जुटा रहता हूँ।
धन्यवाद
--घनश्याम सहाय
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उत्तम
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