औरतों पर किए जाने वाले मज़ाकों का अर्थ क्या है ? (आलेख)- सलिल सरोज
# औरतों पर किए जाने वाले मज़ाकों का अर्थ क्या है ?
साहिर लुधियानवी का फिल्म साधना के लिए लिखा यह गीत औरतों के ऊपर सदियों से हो रहे भद्दे मज़ाक और पुरुष प्रधान समाज की नग्न मानसिकता की पोल खोलता है। ऐसे समाज में रह रहे पुरुषों का एक बड़ा हिस्सा " मेंटल और इंटेलेक्चुअल मीनोपॉज" यानी की " मानसिक और बौद्धिक रजोनिवृत्ति" का शिकार होता है और आने वाली पीढ़ियों को भी सड़ांध और लोलुपता के साथ फूहड़ता की पाठशाला में धकेलता है।
" औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उन्हें बाजार दिया।
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।
जिन होठों ने इनको प्यार किया, उन होठों का व्यापार किया।
जिस कोख में इनका जिस्म ढला, उस कोख का कारोबार किया।
जिस तन से उगे कोंपल बन कर, उस तन को जलिलोखार किया।"
एक जमाने से युद्ध में पुरुष हारते हैं, प्रजा पराधीन होती है और हारी हुई सेना की स्त्रियों की योनि में विजयी हुए पुरुषों का वीर्य स्मृति-चिह्न के रूप में उत्सर्जित किया जाता है। स्त्री के लिए अपहरण भी अपहरण नहीं होता, उसके माथे पर गढ़ दिया जाता है ब्रह्माण्ड में मौजूद आख़िरी प्रश्नचिह्न। अमृता प्रीतम बहुत ही बेबाकी से इस गंध की तरफ इशारा करती हैं- ‘मर्द औरत के साथ अभी तक केवल सोना ही सीखा है। जागना नहीं, इसलिए मर्द और औरत का रिश्ता उलझनों का शिकार रहता है। भारतीय मर्द अब भी औरतों को परंपरागत काम करते हुए देखने के आदि हैं। उन्हें बुद्धिमान औरतों की संगत तो चाहिए होती है। लेकिन शादी के लिए नहीं। एक सशक्त महिला के साथ की कद्र करना उन्हें आज भी नहीं आया है।’
महिलाओं के खिलाफ जो जहर उगला जाता है वो वही पुरुषवादी मानसिकता है जिससे आज तक ये समाज मुक्त नहीं हो पाया है। उन्हें लगता है कि सोशल मीडिया केवल इनका है कुछ भी कर सकते हैं। यदि किसी महिला ने हिम्मत की तो उसके खिलाफ अभद्र और अश्लील टिप्पणी का अंबार लगा दिया जाता है। कोई भी क्षेत्र इससे बचा नहीं है। धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक सभी में महिलाओं के लिए पूर्वाग्रहों का दल-दल तैयार होता है। औरतों के चरित्र का कच्चा कागज इनके हाथ कभी भी पुर्जे-पुर्जे किया जा सकता है। पर हमें इनके दिए हुए चरित्र प्रमाण-पत्र की कोई आवश्यकता नहीं है और न हीं जिंदगी के दस्तावेजों पर इनके हस्ताक्षरों की। आंकड़े बताते हैं कि डेटा रिपोर्ट की डिजिटल 2020 इंडिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में 40 करोड़ सोशल मीडिया यूजर्स जनवरी 2020 तक हैं। 27% लोगों तक इनकी भारत में सीधी-सीधी पहुंच है। यूजर्स में अप्रैल 19 से जनवरी 20 के बीच 13 करोड़ की वृद्धि हुई है। ऐसा मानना है कि 22% की बढ़ोतरी और होगी यूजर्स संख्या में तीन सालों में। (आंकड़े इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन और नीलसन द्वारा किए गए सर्वे के आधार पर हैं)। भारत में नवंबर 2019 तक के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं और पुरुषों के बीच की सामाजिक खाई व सोशल खाई सोशल मीडिया पर साफ दिखाई देती है। सोशल मीडिया के सारे प्लेटफार्म मिला दें तो औसतन 65%पुरुष और 35%महिलाएं एक्टिव हैं। शहरी आंकड़ा अनुपात में 60 फीसदी बनाम 40 का है। ग्रामीण क्षेत्रों में आंकड़ा 70 बनाम 30 का जाता है। कई अच्छे पदों पर काम करने वाले, बुद्धिजीवी कहलाए जाने वाले, समाज में सम्मानित होने वाले लोगों को भी इस जमात में शामिल देखा है।
नात्सी जर्मनी में प्रत्येक बच्चे को बार-बार यह बताया जाता था कि औरतें बुनियादी तौर पर मर्दों से भिन्न होती हैं। उन्हें समझाया जाता था कि औरत-मर्द के लिए सामान अधिकारों का संघर्ष गलत है। यह समाज को नष्ट कर देगा। इसी आधार पर लड़कों को आक्रामक , मर्दाना और पत्थरदिल होना सिखाया जाता था जबकि लड़कियों को यह कहा जाता था कि उनका फ़र्ज़ एक अच्छी माँ बनना और शुद्ध आर्य रक्त वाले बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण करना है। नस्ल की शुद्धता बनाए रखने, यहूदियों से दूर रहने, घर संभालने और बच्चों को नात्सी मूल्य-मान्यताओं की शिक्षा देने का दायित्व उन्हें ही सौंपा गया था। आर्य संस्कृति और नस्ल की ध्वजवाहक वही थीं। विश्व भर में औरतों को बपौती समझ कर उनके लिए तमाम नियम बनाने और फिर उनका उन नियमों पर खड़ा ना उतरने के लिए उन्हें रंडी , वेश्या , व्यभिचारिणी , कुल्टा , बिच और ना जाने कैसे कैसे अभद्र सम्बोधनों से सूचित करने की परिपाटी पुरातन काल से अब तक ज्यों की त्यों चली आ रही है। और वर्तमान में विज्ञापन और मनोरंजन के नाम पर फिल्मों, टीवी और प्रिंट मीडिया में जो अश्लीलता परोसी जा रही है वह भी स्त्रियों के प्रति अपराध को बढ़ावा देता है। कई व्यावसायिक फिल्में स्त्रियों को भोग की वस्तुओं के रूप में ही प्रस्तुत करती हैं। इन सभी के प्रदर्शन से बच्चों में गलत मनोभाव पैदा होते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरों (एनसीआरबी) की रिपोर्ट ‘क्राइम इन इंडिया-2018′ बताती है कि 2018 में ‘महिलाओं के खिलाफ अपराध’ की श्रेणी में 3,78,277 मामले दर्ज किए गए थे जो 2017 के 3,59,849 और 2016 के 3,38,954 मामलों से अधिक हैं। 2018 में आईपीसी की धारा 376 के तहत बलात्कार के मामलों की संख्या 33,356 रही। आंकड़े के अनुसार 2017 में बलात्कार के 32,559 मामले दर्ज किए गए थे जबकि 2016 में यह संख्या 38,947 थी। आंकड़ों के अनुसार 2018 में पूरे देश में हर दिन औसतन बलात्कार की 91 घटनाएं दर्ज की गईं हैं।
अभिनेत्री श्वेता तिवारी कई कॉमेडी कार्यक्रमों में काम कर चुकी हैं। वो महिलाओं पर केन्द्रित स्तरहीन सामग्री के सवाल पर कहती हैं कि "मैं ख़ुद इस तरह के कार्यक्रमों से दूर रहती हूं। हालांकि बीच में कई कार्यक्रमों में ऐसा हुआ और मैने स्पष्ट तौर पर मना किया कि मैं ये नहीं करूंगी। ’’लेकिन श्वेता ये भी जोड़ती हैं, ‘‘अगर थोड़ी बेइज्ज़ती करवानी भी पड़े तो चलता है। शायद भारतीयों का सेंस ऑफ़ ह्यूमर ऐसा ही है। हम दूसरों की बेइज़्ज़ती होने पर ही ज़्यादा हंसते हैं। ’’
वाणी त्रिपाठी महिलाओं के प्रस्तुतिकरण की कड़े शब्दों में आलोचना करते हुए कहती हैं, ''पहले तो फ़िल्म कलाकारों को निशाना बनाकर चुटकुले लिखे जाते थे। फिर दौर आया जब नेता निशाना बने और अब तो स्तर इतना नीचे चला गया है कि महिलाओं का चरित्र हनन ही होने लगा है। मुझे तो ये समझ में नहीं आता कि जो महिलाएं इनमें काम करती हैं उन्हें क्यों इसमें फूहड़ता नज़र नहीं आती। मैं इसकी भर्त्सना करती हूं। ''
महिलाओं पर अनर्गल कटाक्ष कई रूपों में सामने आते हैं जिसकी शिकार हर घर की महिला को कभी न कभी होना ही पड़ता है। जैसे कि औरतें गाड़ियाँ अच्छी तरह से ड्राइव नहीं कर सकतीं। पुरुष-वर्चस्ववादी भारतीय समाज में एक और मिथ्या धारणा निर्मूल साबित हुई है कि औरतें खराब ड्राइविंग करती हैं। बात-बात पर लड़कियों, स्त्रियों की ड्राइविंग का मजाक उड़ाने वाले बाहर तो कम, घर ही में मिल जाएंगे। और तो और, वे भी मजाक बनाने लगते हैं, जिन्हें खुद ठीक से वाहन चलाने नहीं आता है। उड़ाते रहिए मजाक, दिल्ली पुलिस के आंकड़ों ने तो साबित कर दिया है कि महिलाएं ही सबसे सुरक्षित ड्राइविंग करती हैं। इस पर महकमे की ओर से हाल ही में सविस्तार आकड़ा भी जारी हो चुका है। पुलिस ने सार्वजनिक रूप से साझा की गई इस ताजा जानकारी में ये भी खुलासा किया है कि पिछले साल 2017 में ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के मामले में कुल छब्बीस लाख चालान दिल्ली पुलिस ने काटे थे, जिनमें सिर्फ छह सौ महिलाएं दर्ज हुईं।
पितृसत्तामक व्यवस्था में महिला को हमेशा वस्तु की तरह दिखाकर पुरुष से कमतर आंका जाता है| इसी तर्ज पर इसकी सामाजिक रचना गढ़ी गयी है और इसे तमाम विचारों, कहावतों, सांस्कृतिक गतिविधियों और चुटकुलों के माध्यम से गाहे-बगाहे जिंदा रखा जाता है| अक्सर कहा जाता है कि अगर किसी इंसान का व्यक्तित्व परखना होतो उसके मज़ाक को देखना चाहिए| वैसे तो हम अक्सर ये मानते हैं कि मज़ाक में इंसान ज्यादा सोचता-समझता नहीं है और मनोरंजन के नामपर कुछ भी कह-कर जाता है| लेकिन वास्तविकता इससे ठीक उलट है, इंसान जो वाकई में सोचता है, जिसे कहने-करने की हसरत हमेशा उसके दिल-दिमाग में दबी रहती है, मज़ाक में वो अपने उसी विचार को सामने लाता है| इसलिए इस मज़ाक को हल्के में लेना कहीं से भी ठीक नहीं है| अब सवाल ये आता है कि अगर कोई महिला या पुरुष ऐसे मज़ाक करे या चुटकुले सुनाएँ तो हमें क्या करना चाहिए| ध्यान देने वाली बात ये है कि यहाँ हमारी प्रतिक्रिया क्या है या क्या होगी ये उस विचार के भविष्य के लिए बहुत मायने रखता है| विचार का भविष्य माने – उस चुटकुले को आगे भी किसी सामने सुनाया जाएगा या फिर उसका कड़ा विरोध करके उसे वहीं रोका जाएगा। चूँकि मज़ाक में या चुटकुलों के ज़रिये कही गयी बातें हमारे मन में धीरे-धीरे अपनी पैठ जमाने और विचार बनाने का काम करते है, ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि जब महिला हिंसा, बलात्कार, लैंगिक भेदभाव, धार्मिक द्वेष या किसी भी हिंसा से संबंधित विचार को हम किसी चुटकुले में सुनते हैं तो उसपर अपनी प्रतिक्रिया के माध्यम से अपना विरोध दर्ज करें। प्रसिद्ध गीतकार व एड गुरु प्रसून जोशी कहते हैं, 'आज से नहीं, स्त्रियां सदा से चुटकुलों की जद में रही हैं। ये हमारे समाज का दोष है। जिसने औरतों पर हंसने की अनुमति दी। हमें ऐसे समाज की जरूरत है जो इन चीजों का बहिष्कार करे, जो औरत को सिर्फ कहने भर को पूजे नहीं उसे सम्मान भी दे। जहां तक विज्ञापनों में उन्हें परोसे जाने का सवाल है तो यह मानसिक विकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। ऐसे लोगों को इलाज की जरूरत है। जब हम इस मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं तो यह साफ संकेत है कि हम इस स्थिति को बदलना चाहते हैं और एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए तत्पर हैं, जहां स्त्री की सम्मानजनक उपस्थिति हो।'
"ज़िंदगी जोहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू काँपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है निकहत ख़म-ए-गेसू में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उस की आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे"
-कैफ़ी आज़मी
सलिल सरोज
समिति अधिकारी
लोक सभा सचिवालय
संसद भवन, नई दिल्ली
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