जमाल-ए-हुस्न (ग़ज़ल)- श्री घनश्याम सहाय
# जमाल-ए-हुस्न#
जमाल-ए-हुस्न को बे-हिजाब होना था।
आमदे-फ़स्ले-बहार को शबाब होना था।
क़बा-ए-गुल है चेहरा तेरा,ऐ मेरे हमनशीं।
तेरे रुख़सार के तिल को गुलाब होना था।
गुल-ए-तर से लिपटी,सुर्ख़ तितलियाँ ऐसे।
दलील-ए-ख़ुश-दिली को,शराब होना था।
चश्म-ए-नाज़ की कशिश,कुछ यूँ ठहरती है।
दिल-ए-नादाँ को गोया लाजवाब होना था।
शब-भर निगाहे-शोख का ज़ुल्म है उस पर।
पैग़ाम-ए-इश्क़ को,ख़ुदाया तेज़ाब होना था।
ऐ रुख़-ए-ताबाँ,दरिया-ए-हुस्न-ओ-महबूबी।
फ़रेब-ए-हुस्न को तमाशा-ए-सराब होना था।
शब-ए-फ़िराक़ में जुगनुओं का ख़ौफ़ होता है।
शबोरोज़ इश्क़-ए-जावेदाँ को अज़ाब होना था।
ऐ निगार-ए-महर,हरीफ़-ए-हुस्न तेरा फ़िदाई हूँ।
सर-ए-राह-ए-वफ़ा में जा-बजा हिसाब होना था।
(जमाल-ए-हुस्न-ख़ूबसूरती, बे-हिजाब-बेपर्दा।
आमदे-फस्ले-बहार-वसंत ऋतु का आगमन।
क़बा-ए-गुल-फूल की पंखुड़ी,
गुल-ए-तर-ताजा फूल
दलील-ए-ख़ुश-दिली-ख़ुशदिल हृदय।
शब-भर
चश्म-ए-नाज़-प्रेमिका की आँखें।
कशिश-आकर्षण। शब-भर--पूरी रात
रुख-ए-ताबाँ-चमकता चेहरा।
दरिया-ए-हुस्न-ओ-महबूबी-सुंदरता और प्रेम की नदी।
सराब-धोखा,मृगतृष्णा।फ़िराक़-जुदाई।
शबोरोज़-हर समय।
इश्क़-ए-जावेदाँ-ईश्वरीय प्रेम।
अज़ाब-पीड़ा, दर्द।
नीगार-ए-महर-सुगंधित मूर्ति।
हरीफ़-ए-हुस्न-हुस्न की प्रतिद्वंद्वी।
फ़िदाई-भक्त,वफादार।
सर-ए-राह-ए-वफ़ा-प्रेम की राह में।
जा-बजा-जगह-जगह।)
-©घनश्याम सहाय
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