हुस्न-ए-जमालगोटा (ग़ज़ल)- श्री घनश्याम सहाय
# हुस्न-ए-जमालगोटा#
ऐ हुस्न-ए-जमालगोटा, तुझसे बरहम नहीं हूँ मैं।
दौर-ए-दस्त है ख़ालिस,फिर भी, बेदम नहीं हूँ मैं।
संडास-ए-इश्क़-ए-दस्त का औहम रहा शब भर।
पज़ीर-ए-बदन है फिर भी,बंद-ए-ग़म नहीं हूँ मैं ।
सफा-ए-कमख़ाब भी ज़र्द-ए-आब हुआ जाता है।
गर्दिश-ए-ज़द में हूँ,बरहना हूँ,यूँ अदम नहीं हूँ मैं ।
ज़र्द-ए-आब की रवानी, लगे फ़िरदौस में घर हो ।
नूर-ए-हयात हूँ, बुलहवस हूँ, कुछ कम नहीं हूँ मैं।
शिद्दत-ए-कर्ब यूँ है,के हैवान-ए-दस्त बन बैठा ।
सुन ऐ दमसाज़,ख़ुशमिज़ाज हूँ,मातम नहीं हूँ मैं।
माना के ग़मज़दा हूँ,ख़ुद के अज़ाब-ए-दस्त से ।
ऐ हमनशीं,आता हूँ फिर जाता हूँ,कम नहीं हूँ मैं।
शक्ल-ए-मौज-ओ-हबाब का,कुछ ऐसा मंजर है।
दर्द-ए-बदन है लेकिन,दीदा-ए-पुर-नम नहीं हूँ मैं।
(बरहम-नाराज।ख़ालिस-शुद्ध।
दस्त-diarrheaडायरिया।औहम-भ्रम,मृगतृष्णा।
पज़ीर-पस्त।बंद-ए-ग़म-छुपा दुःख।सफा-शुद्ध।
कमख़ाब-रेशमी कपड़ा। ज़र्द-पीला।आब-पानी।
गर्दिश-ए-ज़द-कालचक्र के निशाने पर।
बरहना-नंगा।अदम-अस्तित्वहीन।रवानी-बहाव।
फ़िरदौस-स्वर्ग।नूर-ए-हयात-जीवन का उजाला।
बुलहवस-जुनून का गुलाम।
शिद्दत-ए-कर्ब-कष्ट की प्रबलता।दमसाज़-दोस्त।
अज़ाब-पीड़ा।
शक्ल-ए-मौज-ओ-हबाब--तरंगों और बुलबुलों की तरह।
दीदा-ए-पुर-नम-आँसुओं से भरी आँखें।)
-©घनश्याम सहाय
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