आह से उपजा होगा गान (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय
# आह से उपजा होगा गान#
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान।
निकलकर नयनों से चुपचाप
बही होगी, कविता अनजान।
-सुमित्रानंदन पंत
आदरणीय, पंत की यह पंक्तियों का सस्वर पाठ करते हुए वह नींबू का रस निचोड़े जा रहा था। उसने दुहराया "आह से उपजा होगा गान",चुनांचे "आह" ही कविता का उद्गम विंदु है। ज़नाब 'आह' है तो कविता है अन्यथा नहीं है। अब यह 'आह' खुशी की भी हो सकती है,भय की हो सकती है,वियोग की भी हो सकती है---"वियोग",वियोगी होगा पहला कवि--शायद कुछ चिंतन के उपरांत ही इन पंक्तियों को आदरणीय पंत जी ने लिखा होगा।
अब तक उसने लगभग ग्लास भर नींबू निचोड़ लिए थे--ग्लास रस से भर चुका था--अनायास ही चौंककर बोल पड़ा वह,"रस",जिस प्रकार बिना रस शर्बत नहीं ठीक उसी प्रकार बिना रस कविता नहीं। सुन्दर कविता के लिए "आह" और "रस" दोनों ही आवश्यक हैं। उसने रस पर जानकारी जुटाने के लिए धड़ाधड़ किताबों के पन्ने उलट डाले--पन्ने उलटने की गति यूँ जैसे पंडित भीमसेन राग "झींझोटी" द्रूत में गा रहे हों--उसका नींबू रस से काव्य रस तक पहुँचना ही अपने आप में अचंभित करने वाला था। उसने काव्य रस को कितना जाना या समझा,ये तो मैं नहीं जानता किन्तु अपने रस-ज्ञान को सुदृढ़ करने के बाद उसने जो कोरे कागज पर उतारा,उसकी व्याख्या जरूर करना चाहूँगा।
उसने लिखा था--"रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्"
अर्थात रसयुक्त वाक्य ही काव्य है--बिना रस का वाक्य काव्य तो कतई नहीं हो सकता। उसके बाद उसने काव्य रसों का वर्णन और प्रकार लिखे थे और अंत में उसने विभस्त रस युक्त एक काव्य शास्त्र की आधुनिक विभस्तता को समर्पित एक कविता लिखी थी जोकि कुछ यूँ थी------------
कुछ पीले नींबू,
काँच का ग्लास।
काँच की ग्लास में,
नींबू रस निचोड़ता मैं।
और फिर,
काव्य रस और नींबू रस का,
एक दूसरे में मिल जाना,
और मेरा कबूतर बन उड़ जाना,
ख़्वाब था या हक़ीक़त,
कोई तो समझाओ मुझे।
नींबू रस को काव्य रस में उसने कुछ यूँ मिलाया कि माँ कसम,मन खट्टा हो गया, पूरा का पूरा काव्य ही खट्टा हो गया,हृदय का अंतिम छोर तक खट्टा हो गया--जी तो किया मुंडी मरोड़ दूँ कमबख़्त का किन्तु क्या करूँ--अपना था--न चाहते हुए भी हमें अपनों की बदमाशियाँ बर्दास्त करनी पड़ती है।हृदय ने सोचा क्या कवितायें ऐसी होती हैं? कहाँ भूषण,बिहारी, केशव,दिनकर, पंत,बच्चन आदि को पढ़ कर शाँति रस,श्रृगांर रस,करुण रस आदि की अनुभूति होती थी और कहाँ आज के आधुनिक कवियों को सुन और पढ़कर अनायास ही पिस्तौल के ट्रिगर पर तर्जनी कस जाती है।
अचानक, जिह्वा ने मरोड़ लिया और हृदय से अनायास ही इक "आह" निकल पड़ी और मन फिर जा पहुँचा---
वियोगी होगा पहला कवि,
आह से निकला होगा गान।
और हृदय में काव्य-मेघ उमड़ आये।काव्य रसों का प्रवाह अपने चरम तक जा पहुँचा।कवि हृदय गा उठा---
तेज-तीक्ष्ण वाणी लिए,बोलत चुन-चुन बोल।
सुन्दर सुभग सुभाषिनी, करत गोल पर गोल।।
टोका-टाकी अस बढ़ी, कि बुद्धि धरा प्रमेह।
मूढ़ 'श्याम' गति यूँ भई,पकड़ लिया मधुमेह।।
यहाँ करुण रस भी है,श्रृंगार रस भी है,विभस्त रस भी है,वीर रस भी है और अद्भुत रस भी है,हास्य रस भी है।दो पंक्तियों में लगभग मैंने सभी काव्य रसों को समेट देने का प्रयास कर दिया।
मेरी मधुमालिनी,सुंदर है,सुभग है,मीठा बोलने वाली है--यहाँ "श्रृंगार रस" है किन्तु मेरी सुभाषिनी की मिठास में तीव्रता है तीक्ष्णता है यह हुआ "वीर रस" और उसके चुन-चुन बोले गए व्याख्यानों से मेरे हृदय में जो भाव उत्पन्न हो रहा है, वह है शुद्ध "करुण रस" और सुभाषिनी द्वारा की गई मेरी दशा को देखकर मेरे बच्चों,मेरे छोटे भाई-बहनों की जो हँसी छूटती है,वह "हास्य रस" की उत्पति नहीं तो और क्या है?मेरी कोमलांगिनी का नाम ही सुभाषिनी है,नाम में ही सुभाष है तो नारा भी,"तुम मुझे ख़ून दो,मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा" ही होगा। रोज की टोका-टोकी से बेचारे घनश्याम की बुद्धि को प्रमेह धर लिया है--समस्त ज्ञान टुकड़ों में मंथर गति से बर्बाद हुए जा रहा है-और सुभाषिनी ने बुड़बक घनश्याम की गति और मति पर कुछ प्रभाव ऐसा डाला है कि बेचारे को मधुमेह हो गया--यह सुभाषिनी की अद्भुत कार्य प्रणाली का ही परिणाम है,तो यहाँ हम कुछ हद तक इसे "अद्भुत रस" की संज्ञा से भी सुशोभित कर सकते हैं।कोमलांगिनी का भाव-भंगिमा यही तक समित नहीं रहती--कभी-कभी वात्सल्य रस के सागर में उतर, मुझ तुक्छ पति को लोरी भी सुनाती है जैसे मैं उसका पति न होकर नन्हा सा बालक होऊँ--
मेरे हृदयराज,हे राजकुमार, वारी जाऊँ तुमपर।
नैन नींद आ जाए तुम्हारे,जागोगे तुम कबतक।
हे हृदयराज-----
ये वात्सल्य रस नहीं तो क्या है?
इस सबके बावजूद भी घनश्याम तो यही कहेगा--
पतन होत पत्नी मिले,पति पती होई जात।
श्याम दशा भई मूढ़ सों,व्याह करी पछतात।।
लेकिन सावधान---
चंचल नयन शिकार को,आतुर हौं दिन-रैन।
काया की मया गजब,निसदिन रहत बेचैन।।
बुड़बक काटै डार को,बैठत ही उस डार।
कारज को बुझत नहीं,गीरै फुटत कपार।।
इतना कहते हुए मन से बस आह निकलती है,क्योंकिं,आदरणीय पंत के शब्दों में--
"आह से उपजा होगा गान"।
-©घनश्याम सहाय
Post a Comment