घनश्याम बेचारे (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय

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# घनश्याम बेचारे#

कद्दू की सब्जी बनी, हुआ हृदय अति खिन्न।
मूढ़ श्याम ढूँढत फिरैं, जेवन को कछु भिन्न।।


courtesy-google

बेचारे घनश्याम जी थके-हारे घर पहुँचे--भूख बड़ी जोरों की थी और आज कुछ भिन्न खाने की इच्छा हो रही थी--कुछ चटकदार,कुछ मसालेदार--कुछ यूँ की बस मजा आ जाए।बाबू घनश्याम जी नित्य क्रिया से निवृत हो टेबल पर जा पहुँचे। घनश्याम जी की सुघड़ मेहरारू पूरे मेकअप में हाथ में थाली लिए अवतरित हुईं। आह!क्या रूप है कोमलांगिनी का --होंठो पर विशेष रंग की लिपिस्टिक,आँखों में सजे काजल--माथे पर चमकती बिंदिया-- अब बेचारी को इस लाकडाउन में चेहरे से ढके मास्क के पीछे होंठो पर सजी लिपस्टिक के शेड को दिखाने का मोह---मौका तो लगता नहीं--बौखलाई रहती बेचारी--उसके लिपिस्टिक के शेड अब उसके हुस्न के लिए तारीफ नहीं बटोर पाते---बेचारी!सरकार को गरियाती और मुए लाकडाउन और मास्क को भी--उसे लगता जैसे उसका दमकता हुस्न किसी काम का ही नहीं रहा--इसके लिए  जिम्मेदार भी तो सरकार और कोरोना है।--- और बेचारा घनश्याम--- तभी हाथों में लगी चूड़ियों की खनखनाहट के साथ थाली टेबल पर आ पड़ी--- रोटी और कद्दू की सब्जी--मन खट्टा हो गया घनश्याम जी का-- सोचा,चित्रकार भी अपनी रचना में कभी एक रंग का प्रयोग नहीं करता--कवि और कथाकार भी कभी समान शब्दों के साथ रचना करने में सक्षम नहीं हो पाते किन्तु यहाँ तो रचना की ही रचना लगातार होते जा रही है--घनश्याम जी को लगा जैसे थाली में पड़ी कद्दू की सब्जी नहीं, गेहुमन साँप पड़े-पड़े कह रहा हो----

"एको अहं द्वितीयो नास्ति,न भूतो न भविष्यति"।

केवल मैं ही हूँ दूसरा सब कुछ मिथ्या है--न मेरे जैसा कोई आया है और न आएगा। घनश्याम जी ने पत्नी की ओर देखा--पत्नी ने घूरकर देखा जैसे कह रही हो---"अहं ब्रह्मास्मि"---घनश्याम जी ने नजर नीची कर ली।यह भी सुघड़ सत्य है कि आप "सूर्य और पत्नी दोनों को ही नंगी आँखों से घूरकर नहीं देख सकते"।---- किन्तु हर रोज एक ही प्रकार का भोजन करते-करते बेचारे घनश्याम जी उब चुके थे----उन्होंने विरोध का स्वर बुलंद कर दिया---स्वर मद्धिम ही सही लेकिन विरोध-स्वर की गूँज सर्वत्र विद्यमान थी।


घनश्याम जी झुँझला उठे--रोज-रोज एक ही चीज--बिल्कुल वेस्वाद--कोई स्वाद नहीं।


पत्नी ने घूरकर देखते हुए कहा--स्वाद नहीं? मुझे भी तुम्हारी तारीफ में कोई स्वाद नहीं मिलता। कितने जतन से डिफरेंट शेड की लिपिस्टिक लगाया---सजी मैं--तुमने दिया मुझे तारीफ का स्वाद---जो स्वाद खोजते हो? अभी मिलेगा का स्वाद? अभी दिलवाती हूँ स्वाद।


पत्नी शाँति से उठी अपने डॉक्टर भाई को फोन मिलाया और कहा--डॉक्टर भईया! तुम्हारे जीजा को खाने में कोई स्वाद नहीं आ रहा--थोड़ा-----


थोड़ी देर बाद हास्पिटल से एम्बुलेंस आई और घनश्याम जी को उठाकर कोरन्टाइन सेंटर ले गई। घनश्याम जी पिछले एक हफ्ते से कोरन्टाइन सेंटर में दूसरों को कथा बाँच रहे हैं---


एक आदमी था,किसान था--था दियारा का अतः चने की खेती खूब होती थी--सुबह चने की घुघनी से शुरु हो रात्री चने की सब्जी पर जा ख़त्म होती थी,बेचारे घनश्याम की जिंदगी।संक्षेप में कहूँ तो बेचारे का जीवन ही "चनामय" हो गया था--एक दिन उन्होंने सोचा, चलते हैं बहन के घर वहाँ कुछ नया मिलेगा खाने को--बहन का जहाँ व्याह हुआ था, वहाँ या तो चने की खेती होती ही नहीं थी या फिर बिल्कुल कम होती थी--यही सोच बेचारे अपने "चनामय" जीवन से छुटकारा पाने को---स्वाद बदलने हेतु,बहन के घर जा पहुँचा---भाई को आया देख बहन की सास ने कहा--"ए दुल्हनिया, बहुत दिनों बाद तेरा भाई आया है--ऐसा कर कुछ अच्छा बना--तेरा भाई, दीयर का रहनेवाला है उसे चना बहुते पसंद होगा--ऐसा कर शाम के नाश्ते में चने की घुघनी बना"---रात में आलू-चना बना लेना।


बहन खुश थी। भाई आया था--बड़े मनोयोग से वह रसोई तैयार करना चाहती थी।
चना पड़ोस से मँगाया गया,चने की घुघनी बनी और भाई के सामने चाय के साथ परोस दी गई।


यहाँ भी चना ?चना देखते ही भाई का महमंड बिगड़ा, किन्तु कुछ बोल नहीं सकता था--बहन का घर था,बहन की प्रतिष्ठा थी,उसकी प्रतिष्ठा थी---उसने घुघनी खाते हुए चने को बोला----

"सरऊ,एहीजो।सारे हम तो आए तुफान मेल से तुम का पंजाब मेल से इहाँ आ गया"।

तभी नर्स ने हाँका लगाया--घनश्याम जी टिफिन। घर से टिफिन आने का क्रम हर रोज का था। टिफिन में वही रोटी और लौकी की सब्जी।टिफिन के साथ पत्नी एक चिट जरूर भेजती, जिस पर लिखा होता---"स्वाद आया या अभी भी वेस्वाद ही है"?स्वाद आने लगे तो इसी चिट के पीछे लिखकर भेजवा देना--डॉक्टर भईया को बोल दूँगी---
दुःखी मन घनश्याम को खाना खाते हुए "माँ" बहुत याद आ रही थी--कैसे उसकी जिद्द पर माँ तरह-तरह के पकवान बनाती उसे खिलाती।जब वह बचपने में कभी रूठता तो माँ उससे लाड़ लगाते हुए उसे गा कर खिलाती----

आउ रे फुदगुद्दी चिरईयाँ,
पपरा पकाऊ।
तोरे पपरवा आगि लागो,
बाबू के खिआऊ।

ऐसा नहीं था कि माँ फुदगुद्दी चिरईं को सरापती थी--माँ, फुदगुद्दी चिरईं के पपरा में आग लगने की कामना भी नहीं करती थी---माँ तो फुदगुद्दी चिरई के सामने दाना बिखेर देती थी--फुदगुद्दी चिरईंया आती, दाना चुगती और फुर्ररर से उड़ जाती---ये तो माँ का अपने घनश्याम के प्रति स्नेह था कि मेरा घनश्याम मान जाए और घुटुर-घुटुर खा ले---और फिर हो जाता---
"बबुआ के मुहँवा में घुटुक"--और  घनश्याम बबुआ घट् से मुँह में लेते और फट् से निगल, खिलखिला पड़ते---माँ के चेहरे पर जो स्नेह और संतोष का भाव उमड़ता उसका कोई जोड़ नहीं।


घनश्याम आज भी उसी ममतामयी ममत्व को पत्नी के चेहरे पर ढूँढते हैं लेकिन मिलता है क्या? डिफरेंट शेडस् की लिपिस्टक और विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधन।घनश्याम की आँखों से दो बूँद आँसू कद्दू की सब्जी में टपक पड़े--- अनबोलती कद्दू की सब्जी बोल पड़ी----


"एको अहं द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति"।


घनश्याम ने चिट पलटा और लिखा--🙏🌷🙏

"हे प्राणेश्वरी"
खाने में अब मुझे तुम्हारे, आने लगा है स्वाद।
श्याम मूढ़ को बख़्श दो, करीहैं नाहीं विवाद ।।
डॉक्टर भईया से कहो, जीवन करैं आबाद।
जीवन ऐसा बना है,जस टप टप चुए मवाद।।

(बड़े भाई महिपाल सिंह रावत को समर्पित जिन्होंने कथा का प्लाट दिया।)


घनश्याम

-©घनश्याम सहाय

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