सुनो न मां (लघुकथा)- कल्पना सिंह
# सुनो न मां (लघुकथा)#
काली स्याह रात में राधिका इस मरघट में क्यों आई थी, ये वह खुद को नहीं समझा पा रही थी। यहां वहां नजर दौड़ाई तो सिवाय सन्नाटे के कुछ नहीं था। चांडाल भी सम्भवतः गहरी नींद में सोया हुआ था। यदा कदा कुत्ते और उल्लुओं की आवाज़ कानों में पड़ रही थी। कुछ चमगादड़ों के उड़ने का भी आभास हो रहा था जो शिकार की तलाश में निकले रहे होंगे। रात की इस भयावहता से वह भाग जाना चाहती थी कि तभी रोंगटे खड़े कर देने वाला करुण रूदन उसके कानों में पड़ा। उसने डरते हुए पीछे मुड़कर देखा तो सफेद कपड़ों में रक्तरंजित नवजात दिखाई दिया। उसका दिल दहल गया। इस वीराने में कौन निष्ठुर अपने कलेजे के टुकड़े को छोड़ गया?
वह बुदबुदाई।
निकट जाकर देखा तो वह एक लड़की थी जो उसे टुकुर टुकुर देख रही थी। अजीब सी कशिश थी उसकी आंखों में लेकिन चेहरा रक्त से सना हुआ वह घबराकर जाने के लिए मुडी तो पीछे से आवाज अाई, सुनो न मां, मुझे यहां अकेले छोड़कर कहां जा रही हो? मुझे बहुत डर लग रहा है, प्लीज़ मुझे भी साथ ले चलो। मैं भी जीना चाहती हूं, इस रंग बिरंगी दुनिया को देखना चाहती हूं। मुझसे ऐसी क्या गलती हो गई जो तुम मुझे खुद से अलग कर देना चाहती हो। मैं भी भैया की तरह पढ़ लिखकर तुम्हारा नाम रोशन कर सकती हूं, बुढ़ापे का सहारा बन सकती हूं। यहां तक कि घर के कामों में तुम्हारा हाथ भी बंटा लूंगी बस मुझे मरने से बचा लो।
राधिका के हाथ बरबस ही उसकी ओर बढ़ गए। उसने झट से उसे उठाकर सीने से लगा लिया। लेकिन तभी किसी ने उसे जोर से धक्का दिया और बच्ची उसके हाथ से छिटककर दूर जा गिरी। वह जोर से चिल्लाई और उसकी आंख खुल गईं। शरीर पसीने से तर बतर हो गया था। तो क्या यह सपना था? उसने अपने पेट पर हाथ फेरा अभी भी कोई उसके अंदर सांसे ले रहा था।वह उसी क्षण मन ही मन एक निर्णय ले चुकी थी कि वह अपनी बच्ची से इस संसार में आने का हक नहीं छिनने देगी।
-©कल्पना सिंह
पता:आदर्श नगर, बरा, रीवा (मध्यप्रदेश)
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