सिया वर रामचंद्र की जय (हास्य-व्यंग्य कविता)- श्री घनश्याम सहाय

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★सिया वर रामचंद्र की जय★

जंत हैं हलन्त पर, या कि कहूँ अंत पर,
सुघर सुमन्त प्रभु, सियाराम ध्यावत हैं।
संजय अरविंद पर, अरविंद जलविंद पर,
आँखिन के पुतलिन को, ऐसो चलावत हैं।
जम्भ जस दंभ पर, दंभ हौं सुअंभ पर,
दिल्ली की जनता को, उंगलिन नचावत हैं।
अन्न नहीं आब पर, सुसज्जित शराब पर,
आंजन अरविंद, सुर भैरव लगावत हैं।
व्यंजन में 'अ' लोप, लोप में अलोप लोप,
स्वरन के झुंड बीच, अजंत संत गावत हैं।
मानुख सब अंत पर, जंत सब अनंत पर,
काली रु कपाली काली, लोग गोहरावत हैं ।
नाग जीवै डंस पर, अरविंद प्रभु कंस पर,
काली को सीस अरविंद अति भावत हैं ।
कुक्कुर मतंग पर, भौंकत आदि अंत पर,
देव सब मिली-जुली दुंदुभि बजावत हैं ।
इंद्र अपने दंभ संग, विष्णु देव-शंख संग ।
नट, नटराज, तम तांडव देखावत हैं ।
हलधर हनुमंत पर, अंगद जामवंत पर,
कोटि कोटि चोटी चढ़ि, अंगुरी उठावत हैं।
श्याम 'घनश्याम', अति देखत प्रसन्न भये,
भरि भरि अँजुरिन को मोतिन लुटावत हैं ।

सिया वर रामचंद्र की जय।

(अजंत-वह शब्द जिसके अंत में स्वर हो।
जंत-जीव। मतंग-हाथी । दंभ-अहंकार, आडंबर। 
दंभ-इंद्र का वज्र। तम-अंधकार। हलधर-बलराम
आब-पानी)


  - © घनश्याम सहाय

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