प्रेम का राष्ट्रीयकरण (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय
*प्रेम का राष्ट्रीयकरण*
---------------------------सरकार ने "प्रेम" का राष्ट्रीयकरण कर दिया है। इस करोना काल में सरकार ने प्रेम पर कर्फ्यू लगा दिया है। अवध्य प्रेम अब वध्य की श्रेणी में आ चुका है। उसे समझ नहीं आ रहा कि इस करोना काल में वह प्रेम करे तो कैसे करे।
हर दिन मनुष्य के दिमाग में लगभग छ: हजार विचार आते हैं। ये विचार संक्रमित भी हो सकते हैं और असंक्रमित भी। संक्रमणकालीन व्यवस्था ने उसकी दशा ही दयनीय बना रखी है। आज उसकी विवाह की पंद्रहवीं सालगिरह है। प्रेम से संक्रमित हो, वह घर जा पहुँचा लेकिन यह सोच सावधान भी था।
नाहर के नख विष बसै, नारी के सब अंग।
घर पहुँचे प्रभु आपने, ड्योढ़ी मिले भुजंग।।
घर पहुँचते ही पत्नी ने चिर-परिचित फुँफकार से स्वागत किया। अब हृदय प्रेम से ओत-प्रोत था तो प्रेम तो उतरायेगा ही।चचा की कही बात याद आ गयी-"भईंस पानी में हगी त उतरईबे नूँ करी"।
ठीक भईंस के गोबर की तरह उसका भी प्रेम करेजा में उतराने लगा। सालगिरह पर साथ लाए कनबाली उसने पत्नी की कानों में सजा डाले। कनबाली पा कर पत्नी हुलस पड़ी, भुजंग की फुँफकार अब बुलबुल की चहचहाहट में बदल चुकी थी।
मधुर-मधुर वाणी लिए, बोलत चुन चुन बोल।
गोल-मोल गुलनार मेरी, करत गोल पर गोल।।
पत्नी चहक उठी-
प्रियतम छुअन ये आपकी, ऐसो करत अधीर।
प्रेम प्रवाह सब अंग-अंग, छटपट करत शरीर।।
पत्नी का अचंभित करने वाला यह निराला अंदाज उसकी समझ से परे था--यह सच का पत्नी का प्रणय निवेदन था या सालगिरह पर दिए गए उपहार का प्रभाव--समझ नहीं पा रहा था। इन पंद्रह सालों में बस इतना समझ पाया था--
बीबी नाम बवाल को, छनि-छनि बदले रंग।
छनि में बने कुमुदिनी, छनि में बाघ को ढंग।।
खैर, सालगिरह पर उसने पत्नी के सम्मुख जा प्रेम निवेदन कर डाला।
पत्नी नेकहा-छीः, बड़े "वो" हैं आप।
उसने कहा--क्या हूँ?
पत्नी ने लाड़ लगाते हुए कहा--धत्!एकदमे नहीं बदले, बिल्कुल नहीं बदले आप--वही पहले वाले मेरे भोले-भाले कन्हैया रह गए।पंद्रह साल वियाह को हो गए लेकिन आपको कोई अंतर नहीं पड़ा। धत्, हटिए भी।
मृगनयनी, मनमोहिनी, नयन चलावत बान।
नैन नींद आवत नहीं, नटखट निठुर नदान।।
उसका प्रेम विह्वल मन नाच उठा, जोश-जोश में कवि मन में रहिम कवि जागृत हो उठे, अनायास ही उसने दोहा पढ़ डाला--
जो रहिम उत्तम प्रकृति, का करि सकै कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटत रहत भुजंग।।
पत्नी भी साहित्यिक ही थी, दोहा सुन कोमलांगी की भृकुटियाँ चढ़ गईं--बुलबुल पुनः भुजंग रूप धारण कर चुकी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था वीर रस को श्रृंगार रस में कैसे परिवर्तित किया जाय।उसकी कवि-बुद्धिजाग जागृत हो उठी किन्तु हृदय प्रेम शून्य ही रहा।वह बोल उठा-
--प्रिये!
ऐसो रंग प्रिय आपके, पुलकित होत अनंग।
काजर कारी पड़ गई, जब लगे तिहारे अंग।।
हे चन्द्रमुखी संधान करो, दोऊ नैनन को बान।
हौले-हौले लक्ष्य करो, जे उर बीच धँसै कृपान।।
कोमलांगिनी मान गई, धीरे-धीरे उसके कदम मेरी ओर बढ़ चले। मैनें भी हथियार डाल दिए --कारण था सुबह पढ़ी हुई एक ख़बर--------------------
अतिरिक्त X-क्रोमोसोम की मौजूदगी से स्त्रियों की प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है किन्तु वह तो प्रतिरोधक क्षमता को प्रतीशोधक क्षमता में बदलते साक्षात देख रहा है।उसने मन ही मन कहा--चढ़ जा बेटा सूली पर,भली करेंगे राम। माहौल को हल्का करने के लिए उसने "रफी" का गाना चला दिया,गाना अपनी रवानी में बजे जा रहा था---
"छू लेने दो नाज़ुक होंठों को,
कुछ और नहीं बस जाम है ये।
कुदरत ने जो हमको बख़्शा है,
वो सबसे हंसी इनाम है ये।"
पत्नी बोल उठी---सोचना भी मत, कोरोना फैला हुआ है--रोज सैकड़ों लोग संक्रमण के शिकार हो रहे हैं।
प्रेम निवेदन करता वह बोल उठा--प्रिये!यह तो प्रेम संक्रमण है, कोरोना संक्रमण थोड़े न है। वैसे भी सरकार ने प्रेम का राष्ट्रीयकरण कर दिया है, कोरोना का राष्ट्रीयकरण अभी तक सरकार ने नहीं किया है।
पत्नी बोल उठी--नहीं, कहीं संक्रमित हो गई तो?
उसने समझाया--देखो प्रिये, गाना क्या कहता है?
"छू लेने दो नाज़ुक होंठों को,
कुछ और नहीं बस जाम है ये।
तुम्हारे नाज़ुक होंठ ज़ाम की तरह हैं। ज़ाम का मतलब शराब, मतलब एल्कोहल--और एल्कोहल मतलब सेनेटाइजर--जब होंठ आलरेडी सेनेटाइजड् हैं तो कोरोना का कैसा भय प्रिये? करोना से बचाव के लिए हर जगह सेनेटाइजर की बिक्री हो रही है---और तुम तो स्वयं में एक सेनेटाइजर हो।वह आगे बढ़ा लेकिन पत्नी छिटक कर दूर जा खड़ी हो बोल उठी--धत्,आप बड़े "वो" हैं।
इस "वो" ने फिर उसके दिमाग में सुनामी ला दिया। इस "वो" के अर्थ की खोज में वह पंद्रह सालों से पागलों की तरह भाव-विह्वल हो भटक रहा है किन्तु नतीजा शून्य का शून्य।
कोसता है वह उस समय को जब उसकी तपस्या से प्रसन्न हो,प्रभु शिव ने "वर" माँगने को कहा था। मूर्ख था वह जो उसने "वर" के स्थान पर "कन्या" की माँग कर डाली थी। अब सोच-सोच कर पछता रहा है,काश! मैंने प्रभु से "वर" ही ले लिया होता।
सुनो कथा सुकुमारी की, ग्रसे पुरुष सम्मान।
चंचल चपल चालाक से, लिए नयन बलवान।।
अब वह प्रभु शिव को बैठा गोहरा रहा है-----
प्रभुवर दरशन आपके, भए गूलर को फूल।
राह तकत आँखें गईं, लिए हृदय को शूल।।
और अंत में घनश्याम तो यही कहेंगे---
दृष्टि-दोष प्रभु आपके, करहुँ क्रियेट कलेश।
"श्याम" मति कन्फ्यूज हैं, मंद-मंद भए शेष।।
सरकार नारी सशक्तिकरण की बात करती है। नारी सशक्तिकरण का अर्थ होगा, पुरुष का-- असशक्तिकरण। क्या यह संविधान द्वारा प्रदत समानता के अधिकारों का हनन नहीं है?
-घनश्याम सहाय
(यथार्थ न सही, कल्पना ही सही लेकिन जीवन में नोक-झोंक जरूरी भी है अन्यथा जीवन निरसता की ओर कदम बढ़ा देगा।)
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