चटकी-मटकी (हास्य-व्यंग्य कविता)- श्री घनश्याम सहाय
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★★चटकी-मटकी★★
सखि शीष धरै, दधि की मटकी,
अजी,चाल चल्यौं मटकी-मटकी।
पग कान्ह को हौं, झटकी-झटकी,
प्रभु आँखिन कौ न रूके मटकी ।
ब्रज,गोपि-अगोपि, छटा छिटकी,
छवि बाँचत हौं, ब्रज की चटकी ।
प्रभु लोप-अलोप की है खटकी ,
अब चित्तन को जी लगै भटकी ।
courtesy:-google
अब का मैं बखानूँ, छटा कटि की ।
कटिभाग मुरारि, यौं मुरली अटकी।
अजी छोह कौ सौंह,चमकी-चटकी।
गोपि रास को ठाड़ि, मारत मटकी ।
गोपिन,अस चाहौं छवि प्रभु की।
छिपी आई बसौं उर ओटन की ।
घनश्याम मति की, गति सटकी।
झट जाग पड़ौ, ज्यौं पड़ै चुटकी ।
अब "श्याम" कहैं अटकी-अटकी,
प्रभु कान्ह कथा की लिए पुटकी।
अजी नाउ गोपाल पै आ लटकी ।
भ्रमजाल कौ जाल, फसौं घटकी ।
(मटकी-घड़ा। मटकी-मटकना।मटकी-मटकी मारना। गोपि-जो गुप्त हो।अगोपि-जो प्रत्यक्ष हो।चटकी-बुलबुल। चटकी-चटकदार।लोप-गायब हो जाना।अलोप-वापिस अपने रूप में आ जाना।खटकी-चिंता। कटि-कमर।छोह-प्रेम। सौंह-कसम। ओट-छिपना। उर-हृदय।सटकी-सटक जाना।पुटकी-गठरी। घटकी-घटक से बना।यहाँ घटक चतुर के संदर्भ में लिया गया है।चुटकी-चिकोटी)
-©घनश्याम सहाय
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