चलली कुरबोरनी गंगा नहाए (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय
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संगम सवेरा पत्रिका
"चलली कुरबोरनी गंगा नहाए"
उक्ति बहुत पुरानी है किन्तु आज भी प्रचलन में है। 'कुलबोरन' शब्द का प्रयोग लोग आज भी धड़ल्ले से करते हैं। किसी के दुष्कृत्यों पर लोग अनायास ही बोल पड़ते हैं--
"तुम तो हद "कुलबोरन" है जी।"
आज खग्रास है, मतलब पूर्ण सूर्यग्रहण। सूतक काल भी लम्बा है---उसके दिमाग में भिन्न-भिन्न प्रकार के अपवित्र विचार आंदोलित हो रहे थे। बस एक टक अपने सास को निहारती जा रही थी।वैसे सास से उसका कोई विशेष प्रेम नहीं था और न ही सास का उससे। "वैसे सास है तो साँस है।"
घर में मात्र तीन ही प्राणी थे---वह,उसका पति और सास। पति तो बस बेचारा ही था और पति बेचारे होते भी हैं, पति का सम्पूर्ण जीवन ही उसके "वो" के लिए ही समर्पित होता है। पत्नी तो स्वामिनी है,पति जीवन का पूरा स्वामित्व उसके पास ही तो होता, पत्नी के विषय में कहा जाए तो---
हे भानुमति, हे केतुमती, हे जीवन-प्राण आधाता।
अधिनायक जीवन की तुम,तुम हो भाग्य विधाता।
यहाँ पति कहता है---हे भानुमति(जादूगरनी),हे केतुमती(रावण की नानी) तुम मेरे प्राण की आधाता हो अर्थात मेरा जीवन तुम्हारे पास गिरवी पड़ा है। हे जीवनदायिनी, तुम मेरे जीवन का अधिनायक हो, तुम ही मेरी भाग्य विधाता हो।
अतः पति नाम का जंतु माँ और अपनी केतुमती के बीच हो रहे मूक द्वंद में प्रायः चुप ही रहना श्रेयस्कर समझता है। वो कबीर ने कहा है न,
"दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए" दशा कुछ ऐसी ही है बेचारे की---पिस रहा है या स्वयं को पीस रहा है, अनभिज्ञ है।
पत्नी तो बेचारी गऊ है, कभी-कभार ही रंभाती है, लेकिन माँ? सदैव काँव-काँव करती है।पड़ोसियों को सिर्फ काँव-काँव ही सुनाई पड़ता है, बहु का सास पर अदृश्य प्रहार अदृश्य ही रह जाता है। सारा का सारा दोष सास पर।
बहू मौन तो दोषी कौन? किन्तु इस मौन के पीछे कितनी बड़ी कलाकारी थी, यह कोई नहीं जानता था, बाहरी गतिविधियों के आधार पर अंतस के मनोभावों का अनुमान लगाना जरा कठिन होता है।आखिरकार, मैनें परिवार के तीसरे प्राणी 'पति' से पूछ ही डाला---यार, तेरी माँ, बड़ी शोर मचाती है लेकिन तेरी अर्धांगिनी गऊ है गऊ, आखिर तेरी माँ तेरी पत्नी से इतना झगड़ती क्यों है? सारा दोष मैनें माँ पर थोप दिया।
पहले तो वह चुप रहा---फिर जो उसने जो कथा बताई----बुद्धि में चक्रवाती तूफान उठने लगे।
पति ने कहा---भाई, सभी को माँ की काँव-काँव तो सुनाई दे जाती है लेकिन पत्नी के---
ईशारों-ईशारों में--बता ये हुनर तूने सीखा कहा से
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तो किसी को दिखाई नहीं पड़ते, मानता हूँ माँ चिल्लाती है, लेकिन कब? जब पत्नी ईशारे में माँ को कहती है---"तेरी मुंडी मरोड़कर चूल्हे में झोंक दूँगी।" माँ का चिल्लाना तो दिख जाता है किन्तु पत्नी द्वारा छेड़ा गया मौन युद्ध किसी को दिखाई नहीं देता। कुछ देर को वह चुप रहा फिर कहा--भाई, वैसे मेरी मृगनयनी बड़ी धार्मिक प्रवृति की है, धर्म मर्मज्ञ है---काफी पूजा-पाठ करती है, आज लगे खाग्रास के सूतक काल में उसने प्रभु का भजन किया, शास्त्रों के अनुसार गंगा स्नान कर, दान-पुण्य भी करेगी---बड़ी धर्मात्मा है मेरी पत्नी।
इतने में उसकी पत्नी, सास की गालियों के प्रचंड प्रवाह के साथ बाहर निकली---
मैने पूछा---भाभी, किधर चलीं?
उसने कहा---भाईसाहब, सूतक छूटा है, गंगा स्नान करने, काशी जा रही हूँ--बड़ा ही मधुर स्वर था, ऐसा लगा जैसे किसी ने राग बसंत छेड़ दिया हो। मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा---
"चलली कुलबोरनी, गंगा नहाए।"
भीतर से सास के मुखारविंद से राम-भजन अब भी प्रचंडता के साथ आस-पास के वायुमंडल को संगीतमय कर रहा था। अंत में मैं तो बस इतना ही कहूँगा-
मृगनयनी, मनमोहिनी, नैन चलावैं बान।
मूक दृष्टि देखत रहौं, मूढ़ मति घनश्याम।।
टी०वी० सीरियल का टाईटल साँग अपनी ही धुन में बज रहा था-----
"क्योंकिं सास भी कभी बहु थी।"
-©घनश्याम सहाय
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