दैनिक श्रेष्ठ सृजन-16/12/2019(अशोक दीप)
www.sangamsavera.in
संगम सवेरा पत्रिका
16 दिसंबर 2019
शीर्षक- "प्याज विद्रोहियों की खाज"
(परिचर्चा/वाद-विवाद)
प्याज ! अहा प्याज, वाह प्याज ! क्या मुद्दा है जिधर देखो प्याज के चर्चे। प्याज नहीं जैसे हवा पानी है। सब्जी नहीं मानव जीवन की धड़कन है।प्याज खत्म की धड़कन बंद, वाह री प्याज तेरी बलिहारी जाऊं तू तो जीवन का पर्याय हो गई। बड़े दुःख की बात है आज वैश्विक परिदृश्य विकास और उन्नति के उच्च सोपानों पर चढ़ रहा है, नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है और हम हाथों में प्याज टमाटर लिए संसद से सड़क तक कोहराम मचाए हुए हैं । क्या आज एकमात्र राष्ट्रीय मुद्दा प्याज ही रह गया? क्या और सभी ज्वलंत मुद्दे गौण हो गए या फिर प्याज उछाल कर उन पर पर्दा डाल दिया गया या भारतीय राजनीति की दिशा एवं दशा प्याज-टमाटर ही तय करेंगे ? यह हमारे लिए कोई नई बात नहीं है पूर्ववर्ती सरकारों में भी ऐसा होता रहा है 1977 से 1980 के मध्य जनता पार्टी की सरकार के दौरान भी प्याज की कीमतें आसमान छुई थीं जिसे 1980 के आम चुनाव के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने चुनावी मुद्दा बनाया । 1998 में कई राज्य सरकारों की आंखों में इसी प्याज की बदौलत आंसू आए परिणामस्वरूप राजस्थान एवं दिल्ली की राज्य सरकारों को मुँह की खानी पड़ी। क्या यह उचित है ?
मैं प्याज विरोधी नहीं हूं और न ही मैं प्याज से परहेज करता हूं। जितनी आवश्यकता इसकी आपकी की रसोई में महसूस की जाती है उतनी ही मेरी में भी। पर इसका यह मतलब नहीं कि जरा से भाव बढ़े और हम हो हल्ला मचाना शुरू कर दें। पिछले कुछ सालों में ऐसे भी दिन आए जब किसानों ने अपने खून पसीने की मेहनत को भाव न मिलने पर उसे सड़कों पर फेंकना पड़ा।उस वक्त कहां गए थे हम?तब किसी ने आवाज नहीं उठाई कि किसान को प्याज का उचित मूल्य मिलना चाहिए । इसी प्याज टमाटर की वजह से किसान आत्महत्या करें ये हमें स्वीकार है पर जरा से भाव का बढ़ना नही?
एक पिज्जा के लिए हम ख़ुशी से चार पांच सौ खर्च कर सकते हैं पर एक किलो प्याज के लिए 70-80 रु देना भी नागवार गुजरता है । जिसके चोट लगती है दर्द का अहसास भी उसी को होता है कभी इसे महसूस करके देखिएगा ।सत्ता पक्ष हो या विपक्ष वो तो चाहते ही यही हैं कि हम दाल-रोटी में ही उलझे रहें और अहम मुद्दों से बेखबर रहें भाव आज चढ़े हैं तो कल गिर भी जाएंगे ये सदा स्थिर नहीं रहने वाले ।मित्रों मानता हूँ कि रोजमर्रा की चीजें आम आदमी की पहुँच से बाहर नहीं होनी चाहिए ।लेकिन कभी ऐसा हो भी जाए तो कुछ दिन के लिए सहन भी कर लेना चाहिए। आप तो जानते हैं ""सब दिन होत न एक सामान '' ये परेशानी के बादल आज नहीं तो कल छट जायेंगे।
आज सबसे महत्ती आवश्यकता है भुखमरी से निजात पाने की, महिलाओं को पूर्ण सुरक्षा देने की, बेरोजगारी का समाधान करने की, सामाजिक सौहार्द बढ़ाने की..... ऐसे ज्वलंत मुद्दे जो राष्ट्र विकास में बाधक हैं उन पर यदि ध्यान केंद्रित किया जाए तो बेहतर हो ।
-@अशोक दीप
संगम सवेरा पत्रिका
साहित्य संगम संस्थान
रा. पंजी. सं.-S/1801/2017 (नई दिल्ली)
E-mail-vishvsahityasangam@gmail.com
दैनिक श्रेष्ठ सृजन
साहित्य संपादक- वंदना नामदेव
हार्दिक शुभकामनाएँ-आ0 अशोक दीप जी
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16 दिसंबर 2019
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(परिचर्चा/वाद-विवाद)
प्याज ! अहा प्याज, वाह प्याज ! क्या मुद्दा है जिधर देखो प्याज के चर्चे। प्याज नहीं जैसे हवा पानी है। सब्जी नहीं मानव जीवन की धड़कन है।प्याज खत्म की धड़कन बंद, वाह री प्याज तेरी बलिहारी जाऊं तू तो जीवन का पर्याय हो गई। बड़े दुःख की बात है आज वैश्विक परिदृश्य विकास और उन्नति के उच्च सोपानों पर चढ़ रहा है, नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है और हम हाथों में प्याज टमाटर लिए संसद से सड़क तक कोहराम मचाए हुए हैं । क्या आज एकमात्र राष्ट्रीय मुद्दा प्याज ही रह गया? क्या और सभी ज्वलंत मुद्दे गौण हो गए या फिर प्याज उछाल कर उन पर पर्दा डाल दिया गया या भारतीय राजनीति की दिशा एवं दशा प्याज-टमाटर ही तय करेंगे ? यह हमारे लिए कोई नई बात नहीं है पूर्ववर्ती सरकारों में भी ऐसा होता रहा है 1977 से 1980 के मध्य जनता पार्टी की सरकार के दौरान भी प्याज की कीमतें आसमान छुई थीं जिसे 1980 के आम चुनाव के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने चुनावी मुद्दा बनाया । 1998 में कई राज्य सरकारों की आंखों में इसी प्याज की बदौलत आंसू आए परिणामस्वरूप राजस्थान एवं दिल्ली की राज्य सरकारों को मुँह की खानी पड़ी। क्या यह उचित है ?
मैं प्याज विरोधी नहीं हूं और न ही मैं प्याज से परहेज करता हूं। जितनी आवश्यकता इसकी आपकी की रसोई में महसूस की जाती है उतनी ही मेरी में भी। पर इसका यह मतलब नहीं कि जरा से भाव बढ़े और हम हो हल्ला मचाना शुरू कर दें। पिछले कुछ सालों में ऐसे भी दिन आए जब किसानों ने अपने खून पसीने की मेहनत को भाव न मिलने पर उसे सड़कों पर फेंकना पड़ा।उस वक्त कहां गए थे हम?तब किसी ने आवाज नहीं उठाई कि किसान को प्याज का उचित मूल्य मिलना चाहिए । इसी प्याज टमाटर की वजह से किसान आत्महत्या करें ये हमें स्वीकार है पर जरा से भाव का बढ़ना नही?
एक पिज्जा के लिए हम ख़ुशी से चार पांच सौ खर्च कर सकते हैं पर एक किलो प्याज के लिए 70-80 रु देना भी नागवार गुजरता है । जिसके चोट लगती है दर्द का अहसास भी उसी को होता है कभी इसे महसूस करके देखिएगा ।सत्ता पक्ष हो या विपक्ष वो तो चाहते ही यही हैं कि हम दाल-रोटी में ही उलझे रहें और अहम मुद्दों से बेखबर रहें भाव आज चढ़े हैं तो कल गिर भी जाएंगे ये सदा स्थिर नहीं रहने वाले ।मित्रों मानता हूँ कि रोजमर्रा की चीजें आम आदमी की पहुँच से बाहर नहीं होनी चाहिए ।लेकिन कभी ऐसा हो भी जाए तो कुछ दिन के लिए सहन भी कर लेना चाहिए। आप तो जानते हैं ""सब दिन होत न एक सामान '' ये परेशानी के बादल आज नहीं तो कल छट जायेंगे।
आज सबसे महत्ती आवश्यकता है भुखमरी से निजात पाने की, महिलाओं को पूर्ण सुरक्षा देने की, बेरोजगारी का समाधान करने की, सामाजिक सौहार्द बढ़ाने की..... ऐसे ज्वलंत मुद्दे जो राष्ट्र विकास में बाधक हैं उन पर यदि ध्यान केंद्रित किया जाए तो बेहतर हो ।
-@अशोक दीप
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